कर समर्पण निज अहम का।
दुःख -द्वेष और कष्टों का
तेरा- मेरा के बंधन का ।
भव सागर पार करेगी मैया
कर देगी उद्धार जीवन का ।
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देखने में साधारण सा था
पर खुद में समा रखा था
किसी का दर्द भी, खुशी भी।
राग भी ,द्वेष भी
इश्क़ भी,मुश्क भी।
अनकहे राज भी
दिल के ज़ज्बात भी ।
कागज़ ही तो था
पर हमराज वो हर्फों का था...-
भाव दिल में जो न उभर पाया अब तक।
मिल के तुमसे आया है यकीं ,
मन की बात पहुँचेगी अब तुम तक...-
यादें साथ ले आयीं ।
इन्हीं मे खो गए सारे,
सुकूँ भी ,नींद भी और ख़्वाब भी।
कि सब से हो गयी रुसवाई ...-
घर लौटने से पहले
पूछते हो जब भी,
क्या लाऊँ तुम्हारे लिए?
सोचती हूँ कह दूँ,
ले आना खुद को
खुद से चुरा कर।
दे देना मुझको
सब से छुपा कर।
हो सके तो रहना
बस मेरे होकर ...-
किसी और की ,
काफी हैं ये तन्हाईयाँ ।
जो समझती हैं ,
मेरी परेशानियाँ ।
जो सुनती हैं ,
मेरी खामोशियाँ ।
सुलझाती नहीं है, ये उलझन मेरी ।
क्या कम है, कि ये उलझाती नहीं ।-
ये तल्खीयाँ क्यों है?
मिल कर भी ,नहीं मिलना
दरमियां बेरूखी क्यों है?
शिकायत हो अगर कुछ तो
जतन कर लूँ मिटाने की ।
बिन बात के ही तुमने ,
दी अज़ीयत, ये क्यों है?
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