मुझे ‘मैं’ रहने दो!
छिन रहीं हूँ खुद से,
हर रोज़,
थोड़ा-थोड़ा..
वो जो कड़ाही की सिकी हुई..
खुरचन होती है न?
उस ही की तरह।
किसी को उस खुरचन की चाह नहीं,
किसी को उसके सिके हुए नमकीन स्वाद की खबर नहीं।
फिक्र है तो बस इस बात की,
कि कहीं ये खुरचन कड़ाही में चिपकी न रह जाए..
चमचों और चाकुओं की मार से,
वो खुरचन..
कड़ाही का साथ छोड़ ही देती है।
बची-कुची कसर तो,
विम बार से घिस-घिस कर,
वो काम वाली बाई भी कर देती है;
जिसे ये तक नहीं पता,
कि खुरचन है किसकी।
मुझे ‘मैं’ रहने दो!
छिन रहीं हूँ खुद से,
हर रोज़,
थोड़ा-थोड़ा...
वो जो कड़ाही की सिकी हुई..
खुरचन होती है न?
उस ही की तरह।
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