असहनीय पीड़ा में भी
जिसे आनन्द आता है,
पीड़ा में भी जिसके
चेहरे पर मुस्कान होती है....
वो है माँ।-
कल मैं अपने घर में गृह क्लेश दूर रखने शान्तिपाठ रखा था। चढ़ावे की सामग्री ज्यादा थी। पंडित जी ने कहा - जजमान आप कल सुबह ये मेरे घर पहुंचा देना। मैं भला अपने पुरोहित की बात कैसे नकार देता।
आज सुबह ही मैं चढ़ावे की सामग्री लेकर उनके घर गया।ये क्या....!!पुरोहित जी और उनकी पत्नी के बीच किसी बात को लेकर गृहयुद्ध छिड़ा है और नौबत हाथापाई तक....। मुझे देखकर पंडित जी झेंप गए। मैंने सामग्री दी और लौट गया।
मुझे समझ नहीं आ रहा है कि दुनिया के घर में शान्तिपाठ करने वाले के घर अशान्ति कैसे....?-
नन्ही चिड़िया उड़ने तैयार,
अपने कोमल पंख पसार,
है चुनौती गगन विस्तार,
उड़ जाना है इसके पार।
है ऐसी मौसम की मार,
आगे जीवन जाये हार,
सब ढूंढें शीतल जलधार,
शक्ति मुझे दे पालनहार।
जीवन जीने का है भार,
कर्म है जीवन का सार,
पाखी करने चली विहार,
साहस ने न मानी हार।
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उषा तुम,
हाँ, तुम हो...
पंछी कलनाद,
मंदिर में शंखनाद,
कलियों का प्रस्फुटन,
तुहिन माया स्फुटन,
पौधों का प्राण,
मनुज का त्राण,
तमस पर वार,
दिवस का हार,
सविता संचारिका,
जगत संचालिका,
अगम श्वास,
मन की आस,
दिन की शुरुआत,
सुप्रभात, सुप्रभात।
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उर में संचारित नव ऊर्जा आज,
देवालय में गूंजता, घंटियों का नाद।
चैत्र शुक्ल प्रथम दिवसे प्रातः
नवग्रह नायक भरता मन में आल्हाद।
सुवासित जग नैवेद्य धूप से
ज्योति कलश से प्रकाशित मां प्रासाद।
चैत्र नवरात्र एवं नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
मां जगत जननी की कृपा प्राप्त हो...ॐ🪔🙏
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मंगलमय नव वर्ष हो,
चहुं दिशा नव हर्ष हो।
वेदना रहित हो जीवन,
मानवता का उत्कर्ष हो।
नल संवत्सर विक्रम संवत २०७९ की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई-
देखता हूं आंखों से भी छोटे सपने,
ताकि समेट सकूं बिखरने से पहले।
देखता हूं आंसुओं से भी हल्के सपने,
जिसकी भार मेरी ये पलकें सह ले।
पैबंद लगा, पहनी है कमीज़ अपनी,
ढूंढने पर जेब कैसे मिलेगी इसमें?
लंबाई बस इतनी सी रखी है मैंने,
इश्तहार करता पेट न दिखे जिसमें।
खुली पीठ देखे कोई परवाह नहीं,
लाज से झुकने पीछे आंखें हैं नहीं।
देखो हाल मेरा ये जी भरकर, पर
तेरी आंखें ही झुक जाए ना कहीं?-
महक महुआ की हवाओं में घुली,
पलाश पंखुड़ियां केसर से धुली।
श्रृंगार कानन कामिनी का देखो,
रंग, गंध मादकता की मिली-जुली।।
है मन मचलता संग ठहर जाने को,
क्षण भर,भर अंकों में बहक जाने को।
विरहिन धरती बौराई सी तकती,
अंबर को कहती उतर आने को।।
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