Nitin Singh(दीपक)   (nityn)
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अभी तो शुरुवात है, कुछ और लिखें कि ग़ज़ल हो जाए
Joined 17 March 2022


अभी तो शुरुवात है, कुछ और लिखें कि ग़ज़ल हो जाए
Joined 17 March 2022

दिल भी अपना ना हुआ, वो भी अपने ना हुए।
राह में शम्मा जली, पर ना वो उजाले मिले।

ख़्वाब आँखों में सज के, टूट के ढहते ही रहे।
चाँद तारों की कसम, हमको सहारे न मिले।

‘दीपक’ उनकी गली में, कदम जो हमने रखे।
इश्क़ की दरिया मिली, पर वो किनारे न मिले।

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क्योंकि नफ़रत बाज़ार में बेहद सस्ता है,
मोहब्बत ख़रीद सको तो कोई बात है।

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थकान-ए-सफ़र में मिला नहीं कहीं वो 'आराम' चाहिए ।

किसी को यहाँ काम चाहिए,
किसी को पैमाने भर जाम चाहिए..

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छूटे हुए घरौंदे मेरी बाट जोहते हैं,
कुछ पुरानी मचिया मेरी साथ जोहते हैं।
कोल्हू, द्वार और टायर के झूले,
खप्पर की बूंदें और बरसात जोहते हैं।

दोस्तों की बैठकी और फ़िल्मों की बातें,
अधखिले आमों की मीठी सौग़ात जोहते हैं।
खेतों की मेड़ों पे दौड़ते पाँव नंगे,
कच्ची पगडंडियो के नर्म घास जोहते हैं।

दादी अम्मा की परात, दाल की सोंधी महक,
रोटियों पे लगते देसी घी की सौगात जोहते हैं।
अब भी जब चुपके से खिड़की खुलती है,
बरसात वाली मिट्टी की खुशबू, मुलाक़ात जोहते हैं।

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सादगी है, मगर दाग़ भी हैं,
तुझे क़ुबूल, तेरे ख़्वाब भी हैं।

काँटों का मंजर सही बताया सबने,
उन क़दमों तले बिछे गुलाब भी हैं।

राह-ए-वफ़ा में गिरना भी इम्तिहान है,
मगर उठने के हौसले बेहिसाब भी हैं।

हमने देखा है अंधेरों में बसती यादों को,
तू जहाँ में हो, वहाँ आफ़ताब भी हैं।

‘दीपक’ तेरे शायरी की तासीर कुछ ऐसी है,
ज़ख़्म हैं, मरहम हैं, दिलकश अंदाज भी है।

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दीपक, ज़्यादा सोचकर दिल को क्यों भारी करो,
दुनिया तो बस दिखावे की सब कोई बाज़ारी करो।
फुर्सत किसको है यहाँ आपकी बातें समझने को,
सब लोगों, इधर अपनी ही मजबूरियाँ प्यारी करो।

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हाँ, तू मुझे बरबस याद रहता है,
कुछ मसले कत्तई नहीं सुलझते।

कुछ बातें अभी भी कानों में गूंजती हैं,
हक़ीक़त में मगर वो लम्हे नहीं मिलते।

लाज़िम है कई ख़्वाब सीने में दब जाते हैं,
मगर उनके ज़ख़्म वक़्त से भी नहीं भरते।

‘दीपक’ जुगनुओं से तर्क भला कैसे करे,
ये वो करार हैं जो कभी टूटा नहीं करते।
हाँ, तू मुझे बरबस याद रहता है,.........

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हूँह, तुम दूर हो तो क्या…
मेरी धड़कनों के पास हो।
मोहब्बत कमज़ोर नहीं मेरी,
इम्तिहान लो, मैं तुम्हारे साथ हूँ।

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बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं था,
पूनम का चाँद जो दिखा नहीं था।
अमावस की ज़िद ठहर जाने की थी,
अँधेरों का साथ उसका छिपा नहीं था।

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थोड़ी सी तासीर थी, थोड़ा सा असर था
इतना भी अजीब इश्क़ नहीं था मेरा…..

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