"दो पल यूं अकेले ही सही" कमी कोई ना कोई हमेशा हम में ही रही, कर दिया जिसके भी नाम वक्त उसने ना हमें माना सही। कभी गुमशुम हैं रहते कभी बेबात की हंसी ही रही, हमने जिसकी सुनी वो ही करता रहा हमारी अनसुनी । मैं रहा ही कहां मैं अब कुछ भी ना हमारी हस्ती रही, मेरी नियत से मेरी जिंदगी और आबरू हमेशा सस्ती रही। माना कि ना रही फिजा ना ही अब जंग-ए-जिंदगी से फुरसत रही, खुद्दारियां फिर भी हालत पर हमारी आज भी हंसती रही।
हमारे दिल में है अब क्या तमन्ना तुम क्या जानोगे घिसा है हर कसौटी पर खुद को हमने तुम क्या जानोगे ये जो सोहरतें देखकर आज हमारी सोंच में हो तुम गर्दिशें कितनी है हम पर भी गुजरी तुम क्या जानोगे। निष्कर्ष
अल्फाजों ने ही कभी शामों को सहर कर दिया, अल्फाजों ने ही कभी बढ़ाया तो कभी कहर कर दिया। कभी कह सकते थे कि हैं जिन्दा मुत्मइन हम भी यहीं , अल्फाजों ने करना बसर इस दहर में जहर कर दिया। निष्कर्ष
एक आम सा सख्स था मैं कुछ खास सा बनाया है तूने जो किंकरो में था राहों की सुमार उसे अपने सीने से लगाया है तूने। मिलते ही नहीं थे उजालों के नामोनिशां तम से खींचकर रोशनी को दिखाया है तूने। जानते नहीं थे ये इश्क अश्कों का सिलसिला तेरे हर एक अश्क को जहन में बसाया है मैंने। जो लफ्जो में अक्सर नहीं कर पाता हूं बयान बड़ी अकीदत से उसे हरुफों में सजाया है मैंने। मिलना बिछड़ना तो है बस दस्तूर इस दुनिया का होकर भी मेरा शायद वो ना हो पाये हमारा कभी पर शुक्रिया है तेरा जो उससे मुझको मिलाया है तूने। निष्कर्ष मिश्रा