जन सैलाब की तयारी देखो,
लोकतंत्र की बारी देखो ।
मतदाताओं का खेल रचा है,
उत्सव में अब व्यापारी देखो ।।
पंच वर्ष का पंच तंत्र है ,
तुष्टीकरण एक षड्यंत्र है ।
थाल सजा हर चिन्हों का ,
हर एक मत ही लोक तंत्र है ।।
सब सीख गए अब ध्रुवीकरण भी,
धर्म जातियों का समीकरण भी ।
क्यों मत तुम्हारा मौन पड़ा है,
कर उद्बोधन का संस्करण भी ।।
ना कुंभकरण की भांति बन,
मन चेतना की बाती बन ।
सो गए तो पछताओगे,फिर पांच वर्ष में फस जाओगे,
तू कौरव का ना साथी बन तू पांडव की बाराती बन ।।
यदि एक मत भी गलत हुआ,
तो समय तुम्हारा व्यर्थ हुआ ।
तो देश हित की क्या सोचोगे, फिर निंदा का हक भी खो जाओगे,
फिर देश हित में गर्त हुआ, और एक उंगली से अनर्थ हुआ ।।
तो चयन करोगे कैसे अपने मत का,,,,,
जो न्याय प्रणाली सूची देखे,
युवाओं की रुचि देखे ।
जो परमार्थ रहे और काम करे,जो जन जन का विस्तार करे,
और वंशवाद की ना पर्ची देखे, जो भारत समृद्धि की अर्चि देखे ।।-
कुछ गुजरते शाम में, गुजर रही थी जिंदगी हमारी,
छिपे चांद की रोशनी से,चमक रही थी हुस्न तुम्हारी ।
हमने तो बरबाद किए पैसे मयख़ाने में,
जब दीदार -ए-हुस्न की नज़ाकत देखी,
तो झूमने लगी हर शाम हमारी ।।-
उनके पुराने शहर की धूल अपनी सी लग रही,
शहर की हर रूप पहचानी सी लग रही ।
कुछ तो बात है इस शहर की खुशबू में,
काली घटा भी रोशनी सी लग रही ।।
कुछ सिलवटें ज़िंदगी की दरार सी लग रहीं,
वो गंगा की घाट सुनी मयान सी लग रही ।
बाजार तो लगे थें राहगीरों से बहुत,
आज काशी की गलियां भी सुनसान सी लग रही।।
खोज रहा उस घाट पे मैं को,
बीत गए उन जिंदगी के विषय को ।
अब तो संकल्प भी अधूरी सी लग रही,
बाबा की नगरी आज माया नगरी सी लग रही ।।-
पहुंच गया मैं घाट वो,
जोड़ने को खाट वो ।
जीवन से परे को देखने,
मैं श्मशान में था रात वो ।।
जल रही चिताएं थीं,
वो लपटों में समाई थीं ।
जो जिंदगी में पाया था,
उसी से अब बिदाई थीं ।।
सब काल के चक्र में,
फसें हुए थे दिख रहें ।
जो राम ने रची थीं माया,
उसी में हम सब पीस रहें ।।
मोह और माया का बोध तो वहीं मिला ।
जो जल गई थीं लकड़ियां, उसी में मिल गई थी हड्डियां,
भेद कर सका ना राख के ढेर में,
कौन थीं लकड़ियां और कौन थीं हड्डियां ।।-
वो नरमुंडों की हिंसा देखो,
व्यापक तुम मदारी देखो ।
नाच रहे थें मर्कट जैसे,
सेना की लाचारी देखो ।।
राज्य सभी के जल रहे थें,
अपना राज्य कभी तो देखो !
झांक रहे थें राज्य वो उनके,
और संसद में सबके तेवर तो देखो ।।
कहीं खून की नदियां बह रही,
कहीं अपराधों की सीमा पार तो देखो ।
बहन बेटियां ना रहीं सुरक्षित,
आवाम का अब विस्थापन तो देखो ।।
हर राज्य में गद्दी पाया सबने,
गद्दी का जंगलराज तो देखो ।
जिस आवाम ने गद्दी पर बैठाया,
अब गद्दी पर भस्मासुर को देखो ।।-
निकले थें सफर में अनजाने मुसाफ़िर की तरह,
किसी पहिए पे बक्से के बिस्तर की तरह ।
वो लौह पथ भी झूम रही थी गंतव्य पहुंचाने को,
अनायास सांसे थमने लगीं दो रोशनी की वजह ।।
अपराध जिससे हुई,
पर सांसें उनके अपनों की गई ।
वो खोज रहे थें मुर्दों में अपनो के चेहरे,
बिखर गए वो रूह जब जिस्म पूरी ना मिली ।।
जवानों की टोलियां देव अवतरित सी लगीं,
खतरे में रख खुद की जान,वो बचा रहे थे उनकी जान।
डिब्बों के लोहे काट काट,
बचा रहें थें कितने प्राण ।।
ना जाने जीवन की ये कैसी परिभाषा है,
हर रोज नितांत पाने की अभिलाषा है ।
वो आ गए मुर्दों पे अपनी कुर्सी जमाने,
ये राजनीति भी हैवानियत की पराकाष्ठा है ।।-
जब अवतारों की सूची देखी,
रब की तू अवतार लगी ।
चल रहा था रेगिस्तानों में जब,
दूर तलक, एक छांव भरी किरदार दिखी ।।
मैं पार्थ बनकर सुनता तुझको,
तुमने माधव जैसा ज्ञान दिया ।
गांडीव उठाना सीखा तुझसे,
तुमने प्रत्यंचा पर बाण दिया ॥
दिशाहीन को दिशा मिली,
मेरे कर्तव्यों पर सोध किया ।
मित्रता की परिभाषा का,
तूझसे मुझको बोध हुआ ।।
तेरे अवतरण पे ये दुआ मैं दूं,
हर क्षेत्र में तेरी प्रभा दिखे।
भानु ढलता है कुछ क्षण में,
पर तेरी प्रभा से इंद्र की सभा जले ॥-
सोचा मैं हर राह चलूं,
तेरे गंतव्य की मैं परवाह करूं ।
कुछ खास बना दूं राह को तेरे,
हर विराम पे मैं उत्साह भरूं ।।
हर डिब्बे की कुछ बात निराली,
कोई गीत गाए, कोई गाए कव्वाली ।
कुछ सोच रहे थें ख्वाब को अपने,
कोई चैन से सोए, कोई रहे बदहाली ।।
बच्चे बूढ़े की एक दुनिया थी,
कहीं राजनीति, कहीं धर्म की बतियां थीं ।
व्यापारी अपने लगे थें धुन में,
हर विराम पे कुछ नई अंखियां थीं ।।
ना जाने वो अनजाने,
कब पहचाने से हो गए ।
बता रहे थे घर की बातें,
फिर बेगाने से हो गए ।।-
किताबों के पन्ने अब कागज़ी से रह गए,
चिट्ठी के डिब्बे अब खाली से रह गए ।
झूठ की बुनियादों पर मीनारें देखी हमने,
और हम भला दूरियों को बदनाम करते रह गए ।।
और मेरे हर सपनों पे इख़्तियार था उनका,
बिस्तर की सिलवटों पे तकरार था उनका ।
हमने उन लम्हों को रूहानियत समझा,
उनके हिसाब से उस रात का किरदार था उनका ।।-
शमशान में जलती मशालों को देखा,
लकड़ी में लिपटे हर इंसान को देखा ।
जल रहे थे सपने चिताओं में,
एक क्षण में सपनों को राख होते देखा ।।
ना जाने एक कश्मकश थी जिंदगी में,
उस शख्स के रोते परिवार को देखा ।
जिसने पूरी जिंदगी लुटा दी हर शख्स पर,
बन चुके राख को, किसी ने दोबारा मुड़ के ना देखा ।।
सोचा रुक जाऊं इस घाट पे कुछ क्षण,
धुएं में उनकी याद को देखा ।
अभी तक आग ठंडी हुई नहीं कि,
एक और शख्स को, अपने शख्स की चिता पर जलते देखा ।।
एक सुकून मिली शमशान में मुझको,
मोह-माया को खाक होते देखा ।
रईसों और हुक्मरानों की चिता को देख,सोचा अब तो कुछ खास होगा,
जल रहे थे वह भी उसी तरह और पीछे छूटते दौलतों के अंबार को देखा ।।-