पलकों से ढूलक कर
आते है कपोल पर
और तर कर देते है
दुपट्टा,कभी सिरहाना
ये अश्रु छलकने का
जैसे ढूंढ़ते हो बहाना
हृदय की पीड़ा को
पिघलाकर, दुःख को
गलाकर, लेे आते है
नयनों में
नयन भी सुर्ख लाल
से हो जाते है।
जैसे ज्वालामुखी
धधक रहा हो पृथ्वी के भीतर
राख उड़कर बिखरती है
सम्पूर्ण आवरण में
ऐसे ही उदासी छा जाती है
वातावरण में
गर्म लाल मलबा
फुटकर निकलता है गर्भ से
ऐसे ही उमड़ कर निकलते है
गर्म गर्म अश्रु नयनों से
हृदय की विशुद्ध पीड़ा को
गला कर भर देते है नयनों में
धीरे धीरे जम जाता है
लाल मलबा, हो जाता कठोर पत्थर
मैं भी इंतजार में हूं
धीरे धीरे पीड़ा
पिघल रही है, गल रही है।
और जम कर मेरा हृदय भी
हो जाएगा कठोर पत्थर।
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