निशा कमवाल   (Nisha✍️)
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Joined 12 May 2020


Joined 12 May 2020

बहुत ही खूबसूरत होते है,
रब के बनाये जोड़े,
ख़राब हो जाते है तो तीसरे की आने से।

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इंतकाल भी एहतराम की चाह रखता है,
ज़िल्लत भरी जिंदगी में आता नही है,
रंगों भरी जिंदगी में इंतकाल कोई चाहता नही है।

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दिल दहल गया जब मानवता के नरसंहार मर्म देखा,
किसी की दुनिया उजड़ गई उन्होंने सिर्फ धर्म देखा,

वीरान कर दिया उन घरों को जिनके चिराग़ बुझ गए,
ये कैसा मजहब है ऐसा तो नही कभी लोकधर्म देखा,

क्या अब आत्मा चैन से सो पायेगी उनकी सोचती हूँ,
क्या उनके ख़ुदा ने न अब उनका किया कर्म देखा,

धर्म की आड़ में धर्म को ही ये  शर्मशार कर रहे है,
इंसानियत मर गई इंसानियत तार तार कर रहे हैं,

ख़ुद की हैवानियत को धर्म के पीछे छुपाते हो,
राक्षस हो आत्मा से ये क्यो नही तुम बताते हो,

निराकार अनन्त परमानंद की स्वानुभूति है धर्म तो,
क्यो नही तुम धर्म के आंतरिक मर्म को अपनाते हो,

एक बार धर्म के मर्मज्ञ को अपना कर तो देख,
ईश्वर तेरा मेरा नही वो तो सर्वव्यापी निराकार है एक।

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अब हर दर्द आम हो गया,
मुस्कुराना भी काम हो गया,
अब क्या समझाये किसी को,
अब हर शख्स जिंदगी से गुमनाम हो गया।

न कोई शिक़वा न कोई शिकायत है,
न समझाने की अब मेरी हालत है,
जो भी हो रहा सही हो रहा है,
अब ऐसे ही दिल को आराम हो गया,

किसको समझाये कोई समझेगा नही,
अब दिल भी दर्द को कहेगा नही,
छोड़ देते है सब मसलों को,
ऐसा कुछ मेरा अंजाम हो गया।

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कोशिश ऐकाब नही दोआब थी,
दोगली नीति भी बड़ी नायाब थी,

शक़्ल के पीछे नही देखा मन को,
किस्मत ज़रा हमारी भी ख़राब थी,

सीधे मन से मान लिया जो हुआ,
बस उनकी कोशिश कामयाब थी,

वो जितने काँटे फूलों के से थे,
मैं मन से उतनी ही गुलाब थी,

वादा करो ख़ुद से यूँ ना टूटोगे ,
मैं भी बड़ी ज़िद्दी सी सैलाब थी।

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आखिरकार वो  इस्तेमाल  ही  हो जाती है,
ख़ुद से ज्यादा दूसरों पर यकीं कर जाती है,

भूल  जाती  है ख़ुद को समझ नही पाती है,
फिर वो  अजनबी की बातों में आ जाती है,

क्या ? वो गलती करती है यूँ विश्वास करके,
कि वो उनके अंधविश्वास में पड़ ही जाती है,

खोखले ज़माने की समझ नहीं होती उसमे,
फ़िर पग पग पर सब से धोखा खा जाती है,

देख नही पाती लोगों का चतुराई वाला रूप,
बस अपने सादगी से सब से मार खा जाती है।

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किसी को जरूरी बता दो तो लोग बहुत सस्ता समझ लेते है,
अपनी जरूरत पूरी होने पर लोग अपना रास्ता बदल लेते है।

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फंसी इस जीवन की मझदार में,
मन की मेरे लोगों ने भी ठगे थे,
किस से कह पाती मन  की पीड़,
सब अपनी रोटी सेकने में लगे थे,
अकेला ही पाया दुनिया की भीड़ में,
कहने को कोई भी न यहाँ सगे थे।

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कोई बता कर तो कोई जता कर इजहार करता है,
कैसे बताए उन्हें कि कोई चुपचाप उन पर मरता है,

इतने नाचीज़ तो नही है हम कि कोई यूँ ही समझ ले,
बस इसी बात की कमबख्त दिल शिकायत करता है,

नहीं कहा जाता हमसे बस यूँ अग्यार ही बने रहते है,
बस ख़ामोश दिल ही जानता है कितनी आहें भरता है,

मानते है कह देने से मन का बोझ हल्का हो जाता है,
बस कुछ टूट ना जाये ये दिल सब कहने से डरता है,

चुप है खामोश है कमसकम जी रहे है उसे देख कर,
बिना देखे उसे इमरोज़ कहाँ इस दिल को सरता है।

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20 DEC 2024 AT 23:14

दिल से हर बुरे ख्वाब रुख़सत कर दे,
पर तेरे आने की कोई तस्सली तो दे,

इमरोज़ ही ऐतबार करता है ये दिल,
ये खबर तो कोई उसे जाकर के दे।

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