एक रोज़,
हाथ में आ गया वो ऊन गोला,
रंग-बिरंगी ऊनों के बीच,
मैंने चुन लिया उस पीली ऊन को,
हां, साथ में वो
हल्की बैंगनी ऊन भी चुन ही ली
बनाने को तितली की आकृति,
उस ठिठुरते सर्द मौसम में,
एक प्यारा सा स्वेटर बनाने की चाहत में,
पर मैं उलझ गई,
उस धागे में ही,
शायद सीख ही नहीं पायी,
ठीक से बुनना,
जो भी बुना तो अधूरा ही रहा,
जो ख़्वाब बुने तो रह गए अधूरे,
जो कल्पना बुनी,
तो पड़ गई उलझन में,
पूरा बुना ही नहीं कुछ,
तो ये स्वेटर भी बना ही नहीं,
रह गया अधूरा,
और वो तितली की आकृति,
हाँ, वो भी अधूरी ही रही।
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