कश्ती थी जब मझधार में हवाओं ने जालिम ख़ता किए
तूफा़ं ने रस्ते दिये मुसलसल जन्नत नजर आ ही गयी|
दीपक को हवाओं से ग़र हुनर है बचाने का
रोशनी लड़खडा़ए कहीं पर बुझ नहीं सकती|
हम होश में मदहोश थे रब की जो शर्त मुझसे थी
दामन की आग लपटों ने हवनकुण्ड का रुख़ किया|
मैं पैदल थी, बद् घोडो़ं पे, लक्ष्मण रेखा न पार हुयी
बर्छी- भाले गुमदिशा हुए फिर तो बस जयकार हुई|
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