'नीर' की ग़ज़ल--
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इश्क़ को गर अपनी कूबत का नशा है।
हुस्न को भी अपनी रंगत का नशा है।।
रश्क़ ना कीजै कभी भी एक दूसरे से।
एक दूजे की ही सोहबत का नशा है।।
तुमसे मैं हूँ मुझसे तुम हो सच यही है।
हमें अपनी इस मुहब्बत का नशा है।।
आँखों में यूँ मेरी तुम जो बस गए हो।
जैसे दुनियां की हुकूमत का नशा है।।
तरीके बदले हैं ये जुल्म औ सितम के।
ज़ुबानी जंग की फितरत का नशा है।।
उसने नज़रें फेरी थी अपनों ही से तो।
मुझको क्यों गैरों की संगत का नशा है।।
कुछ लोग तो यूं भी रहते हैं बेख़ुदी में।
'नीर' जिन्हें गैरों की दौलत का नशा है।।
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13/05/2016
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