बस्ती-वस्ती जंगल-वंगल जला दी जाए
सब गुनाहगारों को सजा दी जाए
चाँद को उतारा जाए झील में आज
और फिर आग पानी मे लगा दी जाए|-
उस चार-दीवारी में अब भी अँधेरा कहाँ खाम... read more
शाम से ही आँखों मे नमी रहती है
याद तेरी दरवाजे पे खड़ी रहती है
तुझको देखु या तुझसे बात करूं
हर घड़ी उलझन ये पड़ी रहती है
निकल आयें हैं तेरी गलियो से दूर कहीं
पर तू अभी भी मुझमे कहीं रहती है
जिक्र तुम्हारा सुनकर खो सा जाता हूं
और चाय टेबल पर पड़ी रहती है-
खुले गगन के नीचे जिनका बसर होता है
ऐसे परिंदो का कहाँ कोई घर होता है
हवाएँ तक बिकने लगती है जब बाज़ारो में
तब जाकर यहाँ कोई शहर, शहर होता है
मेरी हर कोशिश को बेकार समझने वालों
मंजिल से पहले हर शख़्स रहगुजर होता है-
कोई भी 'सदा' अब पलट कर नहीं आती
आते-आते आती है साँस, फिर नहीं आती
रिश्ते जल रहें हैं और बुझ रहा है हर इंसान
ऊपरवाले अब तो तेरी भी खबर नहीं आती
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हाथों में हाथ रख के शिकवा किये गए
कैसे कैसे मंज़र आँखों में पैदा किये गए
गैरों को पीने पिलाने की पूरी छूट थी
और हमपे कुछ सितम ज्यादा किये गए।
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बस एक नज़र देखा और चले आये
भर कर आँखों में वो मंजर चले आये
अभी भरा नहीं था वो पेशानी का घाव
और हम नए जख्म खाकर चले आये
हमने रख दी जिंदगी उनके हाथों में
और वो हमें जहर देकर चले आये
जहाँ से लौट कर कोई नहीं आता
हम उस दरवाजे से होकर चले आये|-
कभी जुल्फे, कभी चेहरा, कभी कमर देखते हैं
रख कर शानों पर सर, हम सारा शहर देखते हैं
जहाँ भी वो होते है सभी उस तरफ देखते हैं
और हम सभी देखने वालों की नजर देखते हैं|-
आरजू यही थी कि अपना कहे कोई
आँखों से राब्ता करे दिल में रहे कोई
सफर ए जिंदगी में सभी भाग रहे है
चाहता यही था मेरे भी साथ चले कोई
आँखों में मेरी आँशु देख रातें रो पड़ी
कमरे में इस शख्स के चाँद धरे कोई|
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ये मेंरे अंदर का दर्द मेरी कलम से आ निकला
बहुत रोका मगर कमबख्त ये बाहर आ निकला
जिसे हम उम्र भर पानी समझ कर बहाते रहे
उस आँख का एक एक कतरा दरिया निकला
हम करने गए थे जिससे मोहब्बत की गुफ़्तगू
उस शख्स का तो किसी और से मसअला निकला
तेरी महफ़िल ने भी बेग़ैरत से नवाजा है मुझको
तेरे शहर का हर एक पत्थर दुश्मन मेरा निकला
ये मोहब्बत भी एक तरह की दलदल है 'नीरा'
जो इक बार डूब गया वो फिर उमर भर ना निकला
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जिनके छूने से आ जाती है
पत्थरो में भी जान
मैं उन हाथों की कठपुतली
बनना चाहता हूँ।-