तुम्हें चांद कहा,
जो तू मुझे चांद जैसी पूर लगे
तुम्हें चांद कहूं,
अब तू मुझे चांद जैसी दूर लगे।-
झूठी है ये आज़ादी
जहां आज भी नारी डरती है
जहां मानवता हर दिन लड़ती है
जहां नरभक्षी चले खुले आम
जहां रोता गाँव, नगर तमाम
जहां चहुंओर बस रक्तपात
जहां सहमे नेत्र करते विलाप
जहां सत्ता लोभी अंधे हैं
जहां झूठे धर्म के धंधे हैं
जहां जिंदा जलता इमदादी
हां, झूठी ही है ये आज़ादी।-
उजलत में गुजरते दिन, रा'नाइयाँ है रातों में
कहीं नींद का बोझ, कहीं नावाक़िफ़ सी होड़ है
निढाल है ये शहर, यहाँ केवल शोर है।-
मैं गोकुल का हूं श्याम सलोना,
तू बरसाने की गोरी राधा रानी
मेरी मुरली बोले मधुर तान,
तू झूमे होकर प्रेम दीवानी
घुंघराले केश, मोर मुकुट,
कहते हैं माखन चोर मुझे
केशवी के प्रीत में कृष्णा जागे
जबतक भोर भए
मोहनी है मुस्कान किशोरी,
नैनन से बच पाया ना
राधा राधा रटता रहता,
को दूजा चित्त को भाया ना
नंद का लाल ठुमक रहा है,
नाचे देखो मैया का प्यारा,
गोपी, गैयां, यमुना नाचे,
नाचे देखो वृंदावन सारा
सौंदर्य राषिणी, मृदुल भाषिणी
तेरी मंजुल काया है
तेरे प्रेम में मैंने राधा
जग को अब बिसराया है।-
मैं कुछ बोलूं, और तू शर्माय
आज फिर संग बैठे हैं
मैं, तुम और वो कुल्हड़ वाली चाय।-
खामोश सड़कें, खिड़की से झांकती जालें
आज शहर बिल्कुल विरान है
ना लोग हैं, ना उनकी स्मृतियाँ
देख मुफ़्लिस, यहां केवल टूटे मकान हैं।-
दीदार तो रोज़ होता है
बस उनसे बात अब नहीं होती
दिन तो गुजर जाती है हमारी
कमबख्त, ये रात ही नहीं सोती।-
शब-ए-फ़िराक़ का जब जिक्र हुआ,
मुझे मैं याद आया
लम्हा-ए-रुख़्सत का जब जिक्र हुआ,
मुझे मैं याद आया
सिगार के कश में सुकून तलाशी
देख शीशे में खुदको, मुझे मैं याद आया
लफ्ज़ बहुत पड़े हैं तिरी गुफ़्तगू के लिए
लेकिन तिरी लम्स का जब जिक्र हुआ,
मुझे मैं याद आया।-
रुख़ पर खुले गेसुओं का इतराना, नज़रों से यूं आग लगाना
उसकी अदाओं ने आज फिर कहर ढाई है ।
गालों को चूमता झुमका, गले लगा वह हार
हाय, होंठों पर मुस्कान का श्रृंगार करके आई है ।
दिल के मोहल्ले में ये शोर कैसा?
ढूंढती ये बेकरार आंखें, सांसों ने चुपके से कहा
देख वह फिर साड़ी पहन बाहर निकल आई है ।
-
झूठ के शोर में वास्तविकता रो रही है
सन्नाटा है छाया शहर में, दम अब है घुंटता
लोगों की गंदगी हवाओं में ज़हर घोल रही है।
बिक रहा है इंसां दूसरे पन्ने पर
अनदेखा कर, मत पूछ सवाल इनसे
गरीब की बस्ती में सच आज सच को ढूंढ रही है।
हाथों ने कलम उठाई है, बेसब्र है किताब मेरी
साहब, ज़ुबां खोलना जुर्म है यहां
आज शब्दों की लड़ाई में मेरी खामोशी बोल रही है।-