Nilesh Samant   (निलेश शशिकांत सामंत)
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Joined 29 July 2018


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Joined 29 July 2018
28 APR AT 8:53

कल्पना...

मैं करूं कुछ कल्पना
और शब्द उन्हें चुरा लें
बांध कर अर्थों में उन्हें
बोल कर उन्हें बेंच दें
कुछ कान ख़रीद लें उन्हें
कुछ मन में उन्हें उतार लें
कुछ यूं ही उड़ा दे हवा में
कुछ हसीं में बांध लें
मैं करूं कल्पना
और कल्पना कल्पना ही रहे
कहीं और नहीं बस
वो मुझमें ही पले-बढ़े
कोई और देखें छुएं भी ना उसे
और ये हमारे अंत तक चले
पर फ़िर वही परंपराओं के प्रश्न
भला कैसे पुत्री पिता के घर रहे

-निलेश शशिकांत सामंत ©

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17 MAR AT 9:29

हुस्न...

फ़िर एक बार तेरा हुस्न लुटेगा
कोई आकर कीमत पुछेगा
मैं मजबूर ना नहीं कर पाऊंगा
वो फिर से ऐंठकर मुझपर हंसेगा
तू एकबार वापस दम तोड़ेगी
इस उम्मीद पर घर छोड़ेगी
की कोई तो आकर
तेरा हाथ थामेगा
तेरी असली कीमत जानेगा
तारीखें तो अब हो गई हैं तय
क्या लगता है वो
इस बार लाज बचाएगा ?



- निलेश शशिकांत सामंत ©

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3 MAR AT 21:19




-निलेश शशिकांत सामंत ©

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28 FEB AT 22:22

एक फूल का इंतज़ार कभी ख़त्म ही नहीं हुआ
रंग महक सब लुटाकर भी वो देवता उसे कभी प्रसन्न नहीं हुआ

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28 FEB AT 22:16

कुछ दहलीज़ों को ताउम्र बस इंतजार ही मिला
जा ए जिंदगी अब क्या रखना तुझसे कोई गिला

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24 FEB AT 22:44

जानता हूं बहुत गुनाह हैं मेरे
पर तुम्हारे हृदय से निकली
एक क्षमा मुझे गंगा से भी
ज्यादा पवित्र कर देगी

और अगर कुछ ना भी कर पायी
तो एक दिलासा तो दे ही सकती है वो मुझे

सच कहता हूं बहुत मायने रखती है
तुम्हारी क्षमा मेरे इस जीवन में
की मैं यूं ही नहीं ख़ुद को
सुधारना चाहता हूं



-निलेश शशिकांत सामंत ©

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24 FEB AT 9:29

कुछ ढूंढता है मन मेरा
पर हाथ कुछ आता नहीं
जिंदगी बन चुकी है बस सफ़र
मैं मंज़िल तक पहुंच पाता नहीं

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19 FEB AT 8:24

मानाचा मुजरा..

जिन्होंने धर्म की लाज रखी
सदैव रयत की बात रखी
स्वाभिमान से जीना सिखाया
स्वराज का सच कर स्वप्न दिखाया
हर अहंकार का कुचला सर
महफूज़ हुई हर बहु-बेटी घर
हर पन्ना इतिहास का नतमस्तक है
जब रण में सह्याद्री देता दस्तक है
मेरे धमनियों में है उसका रक्त
हां हां हैं हम उस शिव के भक्त
इसलिए जब राजे छत्रपति
श्री शिवाजी महाराज कोई कहता है
तब अदब से दिल ये
जय जयकार करता है
आंखों में आसूं भर आते हैं
राजे आप आज भी हमें
बहुत याद आंतें हैं

-निलेश शशिकांत सामंत ©️

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18 FEB AT 18:28

।। काली ।।

शहर किनारे एक बस्ती है
जिंदगी जहां बिल्कुल सस्ती है

वो उसी बस्ती में रहती है
काली रात होते ही संवरकर कहीं निकलती है

वैसे तो उसे जानते हैं सब लोग
लेकिन दिखते ही वो मुंह छिपाते हैं लोग

कोई कहता है कि धंधा करती है वो
कोई कहता है अपना घर चलाती है वो

पता नहीं उससे मुझे क्यूं एक हमदर्दी से है
कभी लगता है वो जैसे कोई एक पहेली सी है

जो दुनिया के उजाले से सहम कर छिप जाती है
पर रात के अंधेरे से जैसे उसकी दोस्ती सी है

समाज पर काला दाग़ समझते हैं उसे लोग
क्या सचमुच इतनी खुबसुरत हैं दुनिया समझतें है लोग

अगर ऐसा है तो उसके नसिब में ये काली रात क्यों है
कुछ तो है इसमें आपका भी हाथ
वरना जनाब आप चुप क्यों हैं

- निलेश शशिकांत सामंत ©️

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11 FEB AT 22:17

अनोखी

एक अनोखी रात थी
कुछ अलग ही उसकी बात थी
आसमान से उतरी थी जमीं पर
शायद तब बरसात थी
मैं हर रोज़ की तरह बिखरा था
थोड़ा ख़ुद में था
तो थोड़ा कहीं ओर था
एक भीगी ग़ज़ल सी सुनाई दी
मैं मुड़ा तो वो दिखाई दी
पहली बार लगा मुझे
ये रात मुझसे क्यों छुपाई गई
जब भागा उसके पीछे मैं तो
देखा वो किसी चांद के साथ बितायी गई
कुछ तो अनोखापन था उसमें
जो आजतक उसपर मेरी नींदें लुटायी गई

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