*मन का द्वंद्व*
मेरे मन का द्वंद्व अजब है, कैसे जीता जाये।
चंचल मन ये भटकता रहे, हाथ न मेरे आये।
मेरी झोली, भरी पडी, पर मुझे कभी ना भाये।
जो नसीब से परे, उसीकी चाहत इसे सताये।
कभी बने मन अभेद्य, दुर्धर, अजिंक्य लगता कभी।
पहाड जैसे, दुखसे बहती, धीरज की इक नदी।
कभी लगे है शक्तिहीन, हथियार डाल दे कभी।
आँखो से जख़्मी कर जाये, कोई शिकारी कभी।
श्रेय सफलताओं का क्यूँ बुद्धि को है मिल जाता।
निर्णय कोई गलत हुआ तो, मन दोषी कहलाता।
भावनिक मन और बुद्धि का संतुलन रख पाता।
खुदके मन को जो जीते, वो ही विजयी कहलाता।
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