Nilam   (©Nilam)
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Joined 17 October 2020


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2 HOURS AGO

तुझे असे हे  खोटे खोटे  मौन पाळणे  बरे नव्हे
दुराव्यात जळलेल्या जीवास अजून जाळणे बरे नव्हे

रूप मनोहर तुझे पाहूनी, कुजबुजली ही फुले पहा
म्हणे तुझ्या सारख्या फुलाने, फूल माळणे बरे नव्हे

सखे लाभल्या एकांताला, पुरेपुर साजरा करू
रागाला बिलगून उगाचच, मिठी टाळणे बरे नव्हे

किती तुझ्या डोळ्यांवर मी भाळतो सखे जाणतेस तू
तरी तुझे हे डोळ्यांतुन आसवे गाळणे बरे नव्हे

भिरभिरणाऱ्या वाऱ्या चा तू, इशारा जरा समजून घे
मी असताना, तुझ्या बटांशी, तुझे खेळणे बरे नव्हे

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YESTERDAY AT 13:56

शब्दों के घातक तीर लिखे हैं, जरा ध्यान से पढ़ना
गर ज़ख्मी ना होना चाहो, तो दिल-ओ-जान से पढ़ना

ताज्जुब न करो जो तुमको ये अपनी ही लिखावट लग जाए
अपना ही कोई अफसाना तुम, मेरी जुबान से पढ़ना

है कहीं महकते फ़ूल लिखे, तो कहीं पिरोए शूल भी है
पढ़ सको तो तुम, उन दोनो के दरमियान से पढ़ना

मुमकीन है कि पढ़ते पढ़ते, तुम मुझमे ही रह जाओगे
यकीं न हो तो, मुझे कभी तुम इत्मीनान से पढ़ना

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25 JUL AT 19:09

बिछडती उसकी आँखोमे
भले ही प्रेम तराना था
पर छोड़ कर जाने का
इक वैध बहाना था

उसे जो रिश्ता आया था
वो इक उच्च घराना था
मेरे हाथ थी बस नादारी
और प्यार भी पुराना था

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25 JUL AT 11:16

जुते का चुभता कंकर तो, निकाल कर फेंका
पर दिल का चुभता कंकर सम्भाल कर रक्खा

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24 JUL AT 14:25

पहले गढ़ी नजर से देखा, फिर भरी नजर से देखा
उनकी भली तसवीर को हमने बुरी नजर से देखा

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24 JUL AT 14:18

मगरूर है अगर वो तो हम भी अपनी अना का खयाल रखेंगे
मैसेज नही करेंगे हम भी उसे, भलेही उसे ऑनलाईन देखेंगे

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23 JUL AT 14:41

बचपन के खेल याद आ रहे, याद आ रही गुड़िया
आज मुझे तुम फिर से अपनी, गोद मे लेलो मईया

दिनभर हाथ खिलौने लेकर खेलते, हसते, गाते थे
चोट लगे तो रोकर हम, घर को ही सर पे उठाते
चोट तो आज भी लगती है पर रो न सके है अंखियाँ
आज मुझे तुम फिर से अपनी, गोद मे लेलो मईया

भूत प्रेत के किस्से तब, दादी नानी बतलाती थी
डरकर मै माँ तेरे ही तो, आंचल मे छुप जाती थी
याद आ रहे आंगन, झूले और वो प्यारी सखियाँ
आज मुझे तुम फिर से अपनी, गोद मे लेलो मईया

अंधियारे मे मुश्क़िल पथ पर, राह भटक जाती हूँ
माना की अब बडी हुई हूँ, मैं फिर भी घबराती हूँ
तेरा ही हिस्सा हूँ माँ, तुम थाम लो मेरी बहिया
आज मुझे तुम फिर से अपनी, गोद मे लेलो मईया

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22 JUL AT 23:04

हमारे भी हिस्से मे जो बेशुमार रंज-ओ-मसाइब होते
हम भी लिखते खूब ग़ज़ल हम भी मीर-ओ-ग़ालिब होते

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22 JUL AT 21:45

Our good deeds are the best reassurance because if we have done good deeds only good will come to us.

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22 JUL AT 17:15

कौन सगा और कौन पराया, पहचान नही पाया
फुलों और काटों में मुझको, चुनना ना आया

समय गंवाया अरसे तक यार को मनाने मे
जाना ही था उसको और मै समझ नही पाया

मेरा दोष था चकाचौंध से, मन जो ललचाया
मृगतृष्णा का पीछा करकर हाथ न कुछ आया

पागल था जो तमाशाई को दोस्त समझता था मै
हमदर्दी की चाह में मैंने कितनो को दर्द सुनाया

खुद के दिल को दुखाता रहा, लोगों की खातिर
अंत तक मगर लोगोंको भी, खुश ना रख पाया

क्षणिक सुखों से मोहित होकर बहकता रहा मैं
आँख खुली तो पछतावा था, रो भी नही पाया

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