आदत है कुछ लोगों की
औरों के परिश्रम का
श्रेय खुद लेने का।
कोई अगर प्रशंसा ना करे
खुद ही आगे बढ़कर
मियां मिट्ठू बनने का।।
ऐसे लोगों से राम बचाए
बहुत ही शातिर होते हैं।
अपनी गलतियों को वो
औरों पे मंढ़ देते हैं।
दिखते भोले-भाले पर
छुपे रुस्तम होते हैं।
अच्छे खासे समझदार को
बेवकूफ बना देते हैं।।
©निलम-
फूल फूल पर मंडराती।
सुंदरता पर इठलाती।
बच्चों का मन बहलाती।
हमको बहुत ही भाती।
तितली रानी, लगती मस्तानी।
फिरे बाग में, बनके दिवानी।।
सतरंगी परों से सजी रहती।
अम्बर के इंद्रधनु सी लगती।
ख्वाबों को सबके रंगी करती।
कितनी भोली व भली लगती।
तितली रानी, बड़ी सयानी।
नहीं करती, कभी शैतानी।।
- निलम-
कभी कभी बेवजह ही
मन का पंछी बैचेन हो उठता है।
तोड़कर पिंजरा जमाने का
दूर गगन में उड़ने लगता है।
कोई खुशी मन को नहीं लुभाती
किसी गम से व्यथित नहीं होता है।
निर्विकार भाव से सुख-दुख सहता
भरी भीड़ में भी तन्हा रहता है।
अपने-पराए का फ़र्क नहीं रहता
माया-मोह का बंधन टूट जाता है।
- निलम-
सत्य कह रही हूं मैं,
नैन दर्पण में फकत,
प्रतिबिंब तुम्हारा है।
हर सांस अर्पण तुम्हें,
है अतुल अनुराग मेरा,
तुझपे तन-मन वारा है।
प्रचलित प्रेम नहीं है ये
प्रदर्शन करूं जिसका मैं
दिल पर नाम तुम्हारा है।
विपुल तारे हैं व्योम में,
विभावरी होती जगमग
मगर मेरा एक ही तारा है।
- निलम-
अक्स असलियत का
दिखलाता है आइना।
हर छुपे चेहरे से नकाब
हटाता है आइना।।
मत घबराना देखकर
अपना असल चेहरा।
तुमसे तुम्हारी पहचान
करवाता है आइना।।
लोग आते जाते रहते
खड़ा रहता है आइना।
हर शख्स को ही अपना
समझता है आइना।
- निलम-
जाने कहां गए वो दिन सुनहरे
जब संयुक्त परिवार हुआ करते थे।
मिलजुल कर सब लोग रहा करते थे।
आपस में सुख दुःख बांटा करते थे।।
जब पहली रोटी घर की गाय की
अंतिम रोटी गली के कुत्ते की होती थी।
घर के ताजा मक्खन की बात ही कुछ और थी।
पापड़,अचार, मंगौड़ी भी घर की बनी होती थी।।
आंगन में खटिया डालकर हमलोग सोया करते थे।
जमीन पर पालथी मारकर खाना खाया करते थे।
चौपाल पर पंच-परमेश्वर का ही राज चलता था।
गांव की हर समस्या का समाधान जिनके पास रहता था।।
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दरअसल दशहरा पर्व है,
अपने अंदर के दुर्गुणों पर,
विजय प्राप्त करने का।।
काम क्रोध मद लोभ मोह
रावण सदृश्य जो हैं सबमें,
राम बनके लड़ना है उनसे,
दया क्षमा धैर्य उर में भरके।।
सार्थक होगा तभी उद्देश्य,
इस पावन पर्व को मनाने का,
मिटेगा हर मन से जब घृणा द्वेष।।
- निलम-
मैंने भी सोचा था
जी लूंगा अब तेरे बिन।
मैंने भी चाहा था
हंसकर बिताना हर दिन।
मगर ये हो न सका
क्योंकि आ जाती हो तुम।
बगैर इजाजत कभी भी
मेरे ख्वाबों खयालों में।
तुम्हें देख कर मुंह फेरना
नामुमकिन है मेरे लिए।
काश! कि तुम देख पाती
मेरी चाहत की हद को।
तो कभी न दूर जाती
यूं तन्हा मुझे छोड़ के।।
- निलम-
अपनी बहनों पर अन्याय, मैं कभी न होने दूंगी।
प्यार के बदले दुत्कार, उन्हें कभी न मिलने दूंगी।
करेंगी प्रतिकार वे भी, हर ज़ुल्म व ज्यादती का
जोश भर दूंगी रग-रग में, जीते-जी न मरने दूंगी।-
जो कुछ सुनना ही न चाहे, उसे कहकर क्या होगा।
कहा हमारा जो न माने, उसे समझाकर क्या होगा।
घृणा और नफरत से जिसके, दिल की गोदाम भरी है,
उस निर्मोही से प्रीत लगाके, अपना बनाके क्या होगा।।
-निलम-