बड़ी जद्दोजहद से रिश्ता बनता है,
ये धागा धुएं में न उड़ जाए, डर लगता है।
मन की घबराहट हकीकत न बनजाये, डर लगता है।
दिल जानता है , तुम्हारी एहमियत क्या है,
दोस्ती के किस्सों की, कीमत क्या है।
पर ये किस्से अफसाना न बन जाये, डर लगता है।
दिल की सच्चाई इश्तिहार न बन जाये, डर लगता है।
सोचा था , सालों होगये, बचपना था,
जिसकी हिम्मत हसी में खो गयी, वो बस एक मसखरा था।
पर कही बचपन दरवाज़े पे न आजाए , डर लगता है।
कही वो मसखरा दोषी न निकल जाए , डर लगता है।
आज भी उन आँखों को सुनने की कोशिश करता हूँ,
जानता हूँ समझती नही, फिर भी,
बहुत कुछ समझने की कोशिश करता हूँ।
इन बातों की कशमकश मे,
कही आवाज़ ही गुम न होजाए , डर लगता है।
मेरे एक भेद से,
तेरी मुस्कान पे दाग न लगजाये, डर लगता है।
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