मन नीरधि की गहराई सा हो
भीतर नई नई हिलकोर उठे,,
भर लूँ सारी सृष्टि का ज्ञान
तो!क्यों न अच्छा हो अंजाम।।
तन तना है हिमगिरि के जैसा
सह लुंगी हिम का भार अपार,,
पा जाऊं फतह का शिरोभूषण
तो!क्यों न अच्छा हो अंजाम।।
जैसे दरख़्त और जड़ का साथ
वैसे ही श्रम और मेरा है,,
लड़ जाएंगे भीषण संग्राम
ये है तरूणाई का पयाम
तो!क्यों न अच्छा हो अंजाम।।
-
सम्मुख हो तूफां घनघोर मेरे
क्यूँ डर जाऊं,क्यूँ झुक जाऊं
बन जाऊँगी पीपर तरु सा
सह लुंगी तुफानो का वार
श्रम मेरा रहेगा लगातार...,
अम्बर का अंबु सैलाब बना
क्यूँ देख साध्वस हो जाऊं
बन जाऊं मांझी का पतवार
कर जाऊं सैलाबो को पार
श्रम मेरा रहेगा लगातार...,
पंथ शूल से बिछी हुई हो
वापस लौट के क्यूँ जाऊं
बन जाऊंगी पाटल जैसा
जो रहे आजीवन कंटक संग
कर जाऊंगी हर पथ को पार
श्रम मेरा रहेगा लगातार...,-
मेरे मन मे भी कुछ बात थी,उसके मन मे भी कुछ बात थी
चाँदनी सी रात थी,उसकी तो अलग ही बात थी
वो कह न सकी अपनी बात,मैं ना बता पाया अपनी बात
एक दूसरे की बात सुनने को बीत गयी सारी रात
गर बन गयी होती वो दिल की बात,एक लम्हा बन जाती
वो चाँदनी रात,तो उस बात की भी क्या बात होती।।।-
दिल असीर हो गया था तुम्हारा
मगर आरसी सी टुकड़ो में बिखर गईं
अब तो दिल को बिखरे कई अरसे हो गईं।।
अलको से घिरी पलक पर काली फलक सी
काजल की रेखा जिसे मैं अपलक निहारता था
अब तो उन्हें निहारे कई अरसे हो गईं।।
अपना कुछ तो राब्ता था,
कुछ तो अपने प्यार का किस्सा था,
तुम्हारे दिल पर मेरा भी कुछ हिस्सा था
हिस्सा छिने, अब तो अरसे हो गईं।।
वो नीले गगन सी तुम्हारी नीली सी सारी
नीले फूलो पर जब हाँथो से फहराती थी
तो आंखों में तेरे लिए चाहत और भी बढ़ जाती
चाहत को बिखरे अब तो कई अरसे हो गईं।।
-निकिता पाण्डेय
-
दिल टूटा हमारा तो क्या हुआ हम फिर दिल को मनायेंगे
गमगीन हु बहुत तुम्हरी यादों में,पर जनाजा थोड़ी ना उठवाएँगे
फिर से राहे सजायेंगे,किसी और को चश्मो चिराग बनाएंगे
आबे चश्म भूलकर,फिर मोहब्बत का आशियाना बनाएंगे
हमने तो पूरा गुलशन ही तुम्हारे नाम कर दिया था
तुम चली गयी,किसी और के लिए गुलिस्तां खिलाएंगे
क्यूँ सजाऊ बज़्मे मय क्यूँ हो जाऊं रुस्वा तुम्हारी यादों में
हम तो अपनी यादों में किसी और को बसायेंगे
तुम नही तो क्यूँ भूल जाऊं वो मोहब्बत से भरे तराने
हम खतों में लिखकर नगमे ओ शेर किसी और को सुनाएंगे।।
-
तुम्हे याद होगा वो चिनार जहां हम छुप छुप के मिलते थे,
वो रंग बिरंगे पुष्प जो हमारे संयोग में खिलते थे।
वो कोकिला जो हमारे लिए सरगम गाती थी,
वो तितली जो तुम्हारे कंधों पे आके बैठती थी,
आफताब की प्रभा से तुम्हारी झुमकी चमक जाती थी।
इतना मंजुल दृश्य और सब खुश थे हमारे आग़ोश में..,
वो तराना,वो तितली,वो पुष्प गुमराह हुए हमारे मोह में,
ख़ुश्क होकर बिखर गए सब,हमारे वियोग में।।
-
हमने प्रेम का आगाज किया,बोल तेरी रज़ा क्या है...
गर खता हुई हमसे तो बोल मेरी सजा क्या है..,
वो मुस्कुरा के बोली मैं अबसारो को झुका के खड़ी हु
कुछ तो इशारियत समझो जनाब मेरे शरमाने की वजह क्या है..,
-
ललाट उज्जवल तिलक धारी,नीलकंठित काया कलित
व्याघ्र सम वसन जिनका,है मुखौटा मनोहर ललित
एक कर में त्रिमुखी अस्त्र,एक डमरू से अलंकृत
अंग पर है भस्म जिनके,अधरो पे कान्ति स्मित अकल्पित,
कंठ पर भुजंग लिपटे,पग है पदत्राणो से सुशोभित
करमूल में है स्वर्ण कंकण,जटाओ पर गंगा धार अलौकिक
शांति या हो रौद्र दोनो ही स्वरूप उनमे समायित
अरिदलो का संहार कर,मारकर पीते थे शोणित।।
शत् नाम जिनके,वो है उदारित, ऐसे महान मेरे शंकर,
मानो तो शंकर हर हृद में,मानो तो हर कंकर शंकर,
मानो तो शंकर है अनादि,मानो धरा का हर कण शंकर।।
-
तमिस्त्र निशि में जब तूफाने,भीषण निनाद में चलती है
मानवहृद तब डर जाता,भय अभ्यंतर में उठ पड़ती है
गर्द,सैकत भी अंधड में सर सर की ध्वनि में उड़ती है
इन तूफानो को रोक सकूँ...,
मन चाहे मेरा नीर बनू।।
जो तरु पल्लव नीरस होकर शाखाओं से लटक रही
वह कुसुम अंबु का एक बूंद पाने को कब से तरस रही
इन पर्ण,मंजरी को जीवन देने फलतः..,
मन चाहे मेरा नीर बनूं।।
धधकती तपस में,ऊसर भूमि सलिल पाने को तरसे
जिनकी फसले भी कहती ये फलकनीर हम पर बरसे
फिर उनकी जीवनोदक बनकर...,
मन चाहें मेरा नीर बनूं।।
-निखिल पाण्डेय
-
देख कर मेरा मुखौटा, मैं क्यों दुखी वो सोचती
दुख को मेरे प्रमोद से भर ,फिर अश्रु मेरे पोछती
थामती कर से मेरा कर,प्रसन्नचित्त होकर बोलती
थोड़ा हँसू,संग क्रीडित करू,प्रीति ऐसी खोजती
ऐसा तब था जब दोस्त मेरे साथ थी..,
जो जी चाहा वो करते,किंचित स्वच्छंदता भी थी अपनी
थी चाह इतनी ,मेरे हिस्से का भी सबसे लड़ जाती
लिहाज़ा ना किसी से भय था,सबसे बराबरी थी अपनी
भूख से तड़फू मैं गर,आहार भी देती थी अपनी
हो जरूरत गर मुझे,वसन भी लाती थी अपनी
ऐसा तब था जब दोस्त मेरे साथ थी
-