मेरी खामोशी से ही हिसाब लगा लेना कि कितना बेहिसाब सा यकीन था मेरा ....
अब और कुछ कहना भी नहीं है, इसी से अंदाजा लगा लेना कि ये घाव गहरा है कितना मेरा ।-
ज़िंदगी में लोगों का आना कुछ हुआ तो ऐसे हुआ...कि अपने को बेमतलब रखा और लोगों के 'मतलब' में शामिल मैं होता रहा .......
और जब गए तो अपने मतलब से चले गए और मुझे तब भी 'बेमतलब' सा रखा ।-
उस मोड़ से गुजरते हुए आज उस मकान में "To Let" लिखा हुआ देखा ...
तब समझ में आया की किराए के मकान की तरह रिश्तों को भी लोग खाली छोड़ जाया करते हैं...
शायद रिश्तों को निभाने में Sorry बोलना गंवारा नहीं समझा...Ego ज़्यादा ज़रूरी है... इसीलिए सिर्फ अपने मतलब पूरे करने...लोग आपकी ज़िंदगी में दख़ल देने आया करते हैं ।-
कुछ लोगों ने रिश्तों को भी किराए का कमरा समझा...जरूरत जब छत की थी तो आसरा था और जब तक मतलब था ,तब तक रिश्ता था।
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ज़रूरत "रिश्तों" की है सिर्फ 'मतलब' भर के लिए ...मगर रिश्तों की ज़रूरत 'बेमतलब' भर की भी नहीं ।
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शराफत का फायदा उठाने वालों की कमी नहीं है इस ज़माने में ...कमी तो शराफत की है ,औरों का फायदा उठाने में ।।
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तेरे फर्क पड़ने से मुझे अब कोई फर्क नहीं पड़ता .... ये जो मैने खुद को बदला है, यही मेरा तुझसे 'बदला' है I
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मैं तो बेमतलब-सा था ... रिश्ते बनाए जिन लोगों ने अपने मतलब के लिए...
बेमतलब-सा शायद सोचते भी होंगे वो फासलों के बारे में,
मगर अब मैं दूर हूं उनसे...सिर्फ अपने 'मतलब' के लिए।
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ग़म इस बात का नहीं है कि फ़ासंले हैं ...
ग़म तो इस बात का है कि इन फ़ासंलों की "वजह" को ही फुर्सत नहीं है फ़ासंलों को मिटाने की...
गुमान माने बैठा है अपनी शर्तों की जिद्द पर ,
जब झुकना ही नहीं है तो क्या जरूरत है ऐसे रिश्ते को निभाने की...........
खुदगर्ज़ बनकर न जाने कितनी द़फा खुदगर्ज़ी के बयान दिए हैं ,
ज़रूरत नहीं है हर किसी को बार-बार अपने लिए आज़माने की ।-
वो ख्वाब जो आंखों में बसा हो...कोई और फितूर नहीं हैं अब,
मंजिल जिस पर चला हूं पर ...कोई और कसूर नहीं है अब,
ठोकरें खाई हैं जितनी मैंने अपनी तकदीर में...
जीत को हासिल करने के अलावा कोई और गुरुर नहीं है अब ।-