"तेरी सांसों का रूह तक आना मेरे ज़हन में इस तरह बस गया,
वक्त चलता गया में मानो ख्यालों में ही खो गया,
हसीन हो गया है हर वो लम्हा जिसको मैंने ख्यालों में सोचा था - लेकिन अब वो दिल के सबसे करीब हो गया है"।
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"उनके जी में आए तो दूसरों को बेइज्जत कर देंगे,
अब लोग ही तो है, खुद की जिंदगी से ज्यादा दूसरों की ज़िंदगी में हद से ज्यादा दिलचस्पी लेंगे!
ऐसा करते है शिकायत जिससे है,
उससे कहने का एक वक्त ढूंढ तो लो - हम तुम्हारा इंतजार इत्मीनान से चाय की दुकान पर करेंगे" !
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"गुजरी बातों को अपने ज़हन में क्या लाना?
जो बीत गया उसको अब किसी और को क्या बताना?
मैं खुश रह तो लेता हूं,हर बार अपने दुख अब किसी और को क्या ही बताना...
मुसाफिर को मंजिल से क्या लेना
जहां तक जाना , चलते चलो अब उस जगह के लिए किसी और को राहगीर क्यों बनाना"।
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"जब खत्म हो जाए आस इंसान पर,
भरोसा जरूर रखना खुदा/भगवान पर" ।
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अगर मैं कहता हूं तो कहने दो कहने से क्या होता है,
लिखने वाला जो लिखता है हर कोई थोड़े शायर होता है
सुन ने वाले सुनते होगें शायर और उनके मुशायरों को,खेर हमें कौन ही सुनता है....
दिल में ऐसी हलचल है, न जाने मची कैसी उथल-पुथल है
कहने से गम कम और बोझ मन का हल्का होता है, हर शक्श कहता है
आसान नहीं ढूंढना किस इंसान में वो अक्स होता है ।
जाने दो इन सब बातों को ये सुनी सुनी सी लगती है
फिर भी हर दफे क्यों? कलम इसी बात को लिखती है...?
मेरे हाल को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता कहते सब हैं समझते हम भी हैं....!
जिस पर से गुजरे हो गमों के बादल क्या उससे बेहतर भी कोई जानता है ।
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"चलो अपने दुखों को अपने तक ही रहने देते हैं
लड़के हैं ना,
मुस्कुराकर सारे आंसू और गम भुला लेते हैं"!
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"तुम्हारे जो गिले-शिकवे हैं फकत उन्हें दूर कर ही दूंगा,
उन लबों पे मुस्कुराहट आएगी क्या?
चलो ये भी मैं देख ही लूंगा;
असर आज भी उतना ही है - की तुम नाराज हो भी जाओ,
मैं तब भी तुम्हे किसी तरीके से मना ही लूंगा" !
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"दोस्ती में बेशक हमसे तकरार जरूर रखना,
जब तक हम हैं कोई हमसे गिला-शिकवा न रखना
बात कभी जो बुरी लगे मुंह पर कह देना ;
पीठ पीछे बस तुम तारीफ़ और सामने बेजत्ती का हुनर रखना"!
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"गुमनाम है इंसान की परछाई भी इतनी भीड़ मुझे अब ज्यादा खलने लगी है,
मैं शहर की इस चकाचौंध और दिखावे वाली जिंदगी में अपने वजूद को खोकर खुद-ब-खुद मेरी रूह मुझसे अब दूर भागने लगी है ।
मुड़कर देखा है अपने खलियानों को, टेढ़े मेढ़े और, ऊंचे पेड़ों की परछाईं को,
सुकून देखा है हर इंसान की आंखों में,
अपने लोगों की बातों में !
मुझे शहर अब लुभाता नहीं, गांव मेरे जहन से जाता नहीं" !
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"लिखी जो मुहब्बत उसने अपनी,प्यार की स्याही से;
कितनी गहरी जो उसने बात कही होगी,
उसकी मुहब्बत बिछड़ते हुए भी उससे कितना रोई होगी
लेकिन मुहब्बत उसकी सिर्फ पन्नों में ही सिर्फ उससे लिपट कर ना जाने कितना रोई होगी" !
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