समय का पहिया चलता है
रह जाते हैं पीछे कुछ अनछुये पहलू
और कुछ अस्वीकार्य फैसले
मातृभाषा को सामान्य बना देना
और विदेशी भाषा को सिरमाथे लगा देना
बुद्धिजीवियों के ये अटल फैसले
जिनके नीचे दबकर रह गयीं हमारी संस्कृतियाँ
और हमारी हिन्दी पहचान
फ़िर भी करते हैं अभिमान ???
कि हम विकसित हो गए हैं और शिक्षित
छोड़ आदरभाव कैसे हो गये महान ???
कुरीतियाँ और कुप्रथाएँ अब भी कर रहीं विचरण
हम त्याग अपनी मातृभाषा को
क्या अब नही बन गए निशिचर
स्व को त्याग देने से और पर को अपना लेने से
कौन उन्नति करता है
स्व को खोकर वो बाहुबली का दम भरता है
जो अपनी पहचान न भूले वही असल विजेता है
पाकर मृत्यु भी वो सदैव अजर-अमर हो जीता है- 🖋निहारिका नीलम सिंह
21 SEP 2017 AT 7:53