जिस इबारत का इंतज़ार करती थी नज़रें
वो तहरीर ही सिरे से मिटा दी तुमने
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कभी मन करता है तुम्हारे पास बैठ जाऊँ
तुम चाहो न चाहो मानो न मानो
बताऊँ तुम्हें सब जो घटा तुम्हारे बाद
वो ख़ामोश चीखें जिन्हें दबाती रही मन में
इतना कि आवाज़ घुटी और बन्द हो गई
तुमने कहा ऐसी वो वैसी हो और मान लिया
फिर चल पड़ा सिलसिला कि वैसी न रहूँ
तुमने तोड़ा तो सुन्न पड़ गयीं थीं साँसे
एहसास जो ज़िंदा होने का वहम कराते थे
गुम चुके थे तुम्हारे छोड़े मलबे के नीचे
उस टूटे हुए को ढालने की कोशिश
माने वो हो जाऊँ जैसे तुमने चाहा था
फिर नींद खुली अचानक इक रात
तुममें न कभी चाह थी ना अपनापन
एक छलावे का महल खड़ा किया था तुमने
शायद कभी नहीं आएगा उस मरी ज़बान पर
कि मरे हुए को मार कर पूरा मार डाला तुमने-
हर साँस जैसे एक नया सौदा एक नया दर्द
हर इम्तेहान के बाद फिर ग़म की कुछ और गर्द
ये मौत भी बड़ी बेरहम बड़ी दूर हुआ करती है
वहाँ पहुंचने को एक पूरी ज़िंदगी जीनी पड़ती है-
वो बड़ा रहीम ओ करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो
- बशीर बद्र
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तुम एक अहसास हो
अरमान हो या फिर तस्व्वुर
नहीं बूझ पाई ये पहेली कभी
क्यों हो पास खुशबू की तरह
कभी हो एक दिलफरेब तमन्ना
जैसे चांद निकला हो दूज का
कभी छुप जाते हो मुझमें ही कहीं
जैसे कोई हिस्सा मेरे वजूद का
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मैं एक मकड़ी हूँ
बुनती हूँ ख्यालों के ताने बाने
कश्मकश का इक घेरा
फैलाती रहती हूँ अपने चारों तरफ
फिर उसी जाल में ख़ुद फँस कर
रह जाती हूँ तड़पती हुई
उछलती हूँ छटपटाती हूँ
बाहर आने के प्रयास में कसमसाती हूँ
हार मानना भी चाहती हूँ
फिर एक उम्मीद सर उठाती है
बाहर निकलोगी इस भंवर से कभी
मत गिर जाओ हाथ उठाओ
अंधेरी सुरंग रौशनी तक ले जाएगी
वक्त आएगा जब सब ठीक हो जाएगा
हाँ मैं एक मकड़ी हूँ।-
कभी लगता है सब भूल चुके हो तुम
कभी सोचती हूँ कुछ तो याद होगा
कभी कहती हूँ कि ज़िद की इन्तहां है
कभी ख़्याल आता है शायद सब्र की हद है
कभी ख़ुद को समझाती हूँ मत सोचो उस बारे में
कभी मन बहलाती हूँ कि कभी तो मोहब्बत थी
कभी ग़लती से याद न आ जाए तुम्हारी नफ़रत
कभी रही थी जो हमारे बीच आशिक़ी बनके
कभी नहीं याद करना है उस वक़त को मुझे
कभी न भुला सकने वाले उन लम्हों को
कभी न तस्व्वुर में आना तुम अब और
कभी तो हो तुम से परे जीने का हौसला
कभी तो दूर हो जाओ मुझसे दूर होकर
काश हम भी मार दें तुम्हारे ख़्याल को ठोकर
कभी तो...
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इक किरच सी बनी रहती है ज़ेहन में
जैसे कई टूटे काँच हों पड़े
ढूँढा टटोला समझ में फिर आया
हमारे ही दिल के हैं सारे वो टुकड़े-
कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते
बस जज़्बात होते हैं
दोस्ती या कोई और एहसास
या सिर्फ़ एक अपनापन
दूसरे का दर्द महसूस करने वाले
दूर रहकर दुआओं में रखने वाले
कई परतों और तालों में बंद
सिले हुए होठों वाले
कभी खत्म नहीं हों जो
न जीने न मरने वाले
न ज़िन्दगी के साथ
न मौत के ही बाद-
तन्हाई का वो ठहरता शोर,
वो रीतापन, वो गहरे उतरता सन्नाटा,
वो ज़ेहन की लहरों पर मचलते एहसास...
तन्हाई कभी अकेली कहाँ आती है...
पूरे कारवाँ के साथ डेरा जमाती है
न लौट जाने के लिए...
सिर्फ़ ठहर जाने के लिए
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