मेरे साँवरो...
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तोसे ऐसी प्रीत लगी , अब और कोई ना भाए
साँवरियाँ बस साँवरियाँ , मन गीत यही बस गाए ,
मन गीत यही बस गाए, सुध - बुध भूली जाए
रोम - रोम पुलकित है ऐसे, ज्यों पुष्प मधुर खिल जाए।
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मनमोहक मुस्कान साँवरो, वारि -वारि मैं जाऊँ ।
रैन -दिवस बस रूप निहारूँ, मन -मन्दिर तोहे बसाऊँ ।।
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"मनुष्य ने
गढ़े ...
द्वेष , कुरूप, बेरंग जैसे शब्द
प्रेम , सुंदरता और रंग के विरूद्ध
और रच दिया भेद भाव का
एक अपरिमित संसार...
और स्वयं ही फंसता चला गया
अपने बनाये चक्रव्यूह में... "
शेष अनुशीर्षक में पढ़ें...-
ह्रदय कुंज में गुंजित होते
जाने कितने राग,
मधुर मनोहर तान मोहनी
बाँधे मन ही मन अनुराग,
मुस्काने अधरों पर बैठी
हिय में भरती प्राण ,
पुलकित नयन सहज ही बहते
गाते प्रेमिल कोई गान ,
स्वप्निल पंखो में बाँध स्वयं को
माँगूं स्वर्णिम वितान ,
बह जाऊँ पवन के झोंकों संग
पाने को विस्तृत आसमान,
आशाओं ने खोल दिये है अब तो
अभिलाषाओं के द्वार ,
बनना होगा अब स्वयं मुझे ही
नव स्वप्नों का अभिसार।
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