मेरे सपनों ने जिम्मेदारियों की चादर क्या ओढ़ी,
अब तो ख्वाहिशें महज कागजी होकर ही रह गई-
मुस्कुराने से भी सुलझती है ,उलझनों की गुत्थियां
यूं उदास रहने से मसले सुलझा नहीं करते।-
दिन भर चेहरे में लिए झूठी हंसी का नकाब उतारकर
अपने मन के अँधेरों को लिए
हर शाम जब मैं घर की बालकनी में जाती हूँ
तो आसमान को देख ऐसा लगता है मानो
सूरज ढलने पर अम्बर का सुनापन
मेरे ही मन की व्यथा को बताता हो
पर सहसा मेरी नज़र जाती है
उस सावली सी शाम में चमकते भोर के तारे पर
जो मेरे मन में आशा की एक किरण जगाता है
कि ये सुनापन बस कुछ देर का है फिर,
जैसे निशा के आगमन पर असंख्य तारे आकर
अम्बर के आनन को उजालों से भर देंगे
वैसे ही कोई नूर की किरण आकर
मेरे मन के तम को हर उसे रौशन कर देगी
और उस टीमटीमाते तारे की तरह
मै होठों में मुस्कान लिए उसी उम्मीद के साथ
वापस नीचे आ जाती हूँ
-
क्षितिज में जगमगाते तारों की
गणना जितना ही जटिल है,
प्रेम पर कवितायें लिखना।
प्रेम एक अनुभूति है,
जिसे वर्णों की माला में पिरोना
आसान नहीं।।।
-
हाथ में बँधी रूढ़िवादिता की जंजीरो और
पैर में जकड़ी बेतुकी परम्पराओं की बेड़ियों को
जिस पल तोड़ हम आजाद परिंदो की भांति,
उन्मुक्त गगन में उड़ने की आकांक्षाओं के साथ
नवजीवन की शुरुआत करते है ,
उसी क्षण शत्रु सदृश समय हमारे जीवन से
कभी न लौट आने की चेष्टा लिए
वापस चला जाता है ।-
हसरते हज़ार थी कभी जिन्दगी में हमारी
अब तो तमन्ना भी यही है कि
कोई तमन्ना ही ना हो-
हर शख्स़ को है उस शख्स की तलाश
जो पढ़ सके उनके अंतर्मन को,
और आत्मसात कर पाये उनके
मौन में छुपी शब्दों के भाव को-
कभी मिलेंगी कोमल राहें
तो कभी पथरीले रास्तो से गुजरना होगा
डूबा देगी कभी दरिया भी हमको
तो मुलाक़ात कभी किनारों से भी होगा
कब तक यूँ भाग्य भरोसे बैठेंगे
कभी तो उठकर संघर्ष करना होगा
पहुँचना है गर अपनी मंजिल तक हमें
फिर कहीं से तो पहले निकलना ही होगा-
कभी मिलेंगी कोमल राहें
तो कभी पथरीले रास्तो से गुजरना होगा
डूबा देगी कभी दरिया भी हमको
तो मुलाक़ात कभी किनारों से भी होगा
कब तक यूँ भाग्य भरोसे बैठेंगे
कभी तो उठकर संघर्ष करना होगा
पहुँचना है गर अपनी मंजिल तक हमें
फिर कहीं से तो पहले निकलना ही होगा-
रेगिस्तान मे मृगमरिचिका की तरह होती है लोगों की शख्शियत
जितना हम करीब जाते है हकीकत कुछ और पाते है-