पुरुषों ने हथियार उठाये
रणनीतियाँ बनाई
रचे तरह तरह के व्यूह
पुरुषों ने जंग लड़ी
जमीन से,
दीवारों से,
पत्थरों की साखों से!
और जीते मृत शरीर
रक्त से सिंचित भूमि
और रंगहीन जिन्दा लाशें,
और कहलाये चक्रवर्ती!
स्त्रियों ने बेलन उठाया
गोल रोटियां बनाई
चाकू तराशी और
काटे निर्दयता से लौकी टिन्डे!
औरतों ने जंग लड़ी
भूख से,
गुस्से से,
उन्होंने लिखी रस भरी थाली,
और जीते भर पेट सोये बच्चे,
और फिर भी वे रह गयी सिर्फ स्त्रियां!-
इन सबसे विलग कुछ स्त्रियाँ
ना फूल चुन पायी और ना उन्हे भाई तलवार,
उनके हिस्से आया एक कोरा कागज़!
उन्होंने चुनी अपने हिस्से की स्याही,
और लिखी यथार्थ के चूल्हे पर
सिंकती लोरियाँ!
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जाने कितने दिन हुए फुरसत से बैठ शाम गिने
अब तो दिन निकलता नहीं कि रात हो जाती है!-
पुरुष गृह त्याग कर
बुद्ध कहलाये!
और स्त्रियाँ?
तथागत ये कहाँ का न्याय है?
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कविताएं शांत मन की उपज होती है,
उद्विग्न मन से या तो मौन उपजता है,
या अतिशय कोलाहल!-
अपने उन्मुक्त बहाव की धुन में ,
नदियों ने सिखा दिया
पहाड़ों को अनवरत चलना,
किन्तु अपनी हठधर्मिता में रूठे हुए पहाड़,
नहीं सिखा पाते
नदियों को छण भर ठहरना!
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सोचती हूँ,
लिखूँ कुछ शब्द,
साधारण से!
ना व्याकरण की जटिलता हो
ना अलंकारों सा सौन्दर्य!
निपट अल्हड़ मुझ से,
मेरे अंतस की आभा से,
कुछ शब्द मेरी छाया से!
लिख दूँ कुछ अपना हिस्सा,
कह दूँ जो नहीं कह पाती,
सोचती हूँ लिख दूँ
अपना मौन!-
जो ना समझे मौन की परिभाषा,
वो शब्द समझ पायेगा क्या?
कही जो समझ ना सके
वो अनकही जान पायेगा क्या?-
एक वक़्त था ज़ब
आदमी कविता पालता था!
एक वक़्त है अब
कविता आदमी को पालती है!!-