सब्र
खोया बहुत कुछ की याद नहीं,
सोया था सुकुन से किस रात
वो रात मुझे याद नहीं,
दिन अक्सर गुज़र जाता हैं भीड़ में,
कैसे कटे मेरी ये रात जिसका हल नहीं,
सब्र कर के इतना बैठा हूं,
हाथ ख़ाली मेरे लिए
गैरों के लिए बाहें फैला बैठा हूं,
ना जानें क्यों नज़र आता नहीं
दमन का फटा हुआ वो कतरा
खुशी जहां से फिसल जाती हैं,
मरता हूं हर पहर जब याद तेरी आती हैं,
भटक रहा हूं बन मुसाफ़िर में
मंज़िल दूर तक नज़र आज भी आती नहीं,
भूले मुझे एक अरसा हो गया तुझको
एक तेरी याद हैं जो भूली जाती नहीं,
आजमा लेता मैं क़िस्मत को भी
जो तू मेरे साथ खड़ी तो होती,
कितना सही था,कितना गलत
इस बात के लिए थोड़ा मुझसे लड़ी तो होती,
जताती हक अपना मुझ पर भी थोड़ा,
यूं ही ख़ामोश मुझसे हुईं ना होती,
जितना बिखरा मैं, टूटी तो वो भी होगी,
कर ख्वाबों को पैरों तले नम आंख होगी,
इल्ज़ाम कैसे लगा दूं बेवफाई का,
इश्क़ और इज़्जत की जंग उसने भी लड़ी होगी...
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