ए मनाली हर लम्हा मैं, मेरी इन आँखों में सैलाब रखती हूँ
तेरे जाने के बाद, तुझे क्या मालूम कितना याद करती हूँ
रोज चले जाते है ये कदम, उस दर्द-ए-मंजर के समन्दर में
फिर बैठ कर किनारे मैं, इन अश्कों को आजाद करती हूँ
वो खौफ का आलम, वो हाल -ए-बेहाल बड़ा सताता है
फिर बेबस सी अकेले मैं, यूँ खुद को दर्द -ए-आग करती हूँ
कमबख़्त अश्कों के दरिया मेरे, बहते ही रहते है हर वक्त
कैसे कहूँ ए बहन, के तुझे अब भी कितना प्यार करती हूँ
ऐ काश! कुछ कर गुजर जाते हम, रोक लेते तुझे जाने से
क्यों मांगा तुझे खुदा ने, अफसोस ये मैं बार-बार करती हूँ
ए मनाली हर लम्हा मैं, मेरी इन आँखोंमें सैलाब रखती हूँ
तेरे जाने के बाद, तुझे क्या मालूम कितना याद करती हूँ
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