Neetish Patel   (Neetish)
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Joined 21 November 2017


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Joined 21 November 2017
26 JUN AT 9:27

ये बारिश की बूँदे एक जैसी दिखने पर भी एक जैसी नहीं होती
किसी के दिल का सुकूँ हैं ये बूँदे
तो किसी के मन को झकझोर देती हैं ये बूँदे
कोई बैठा हैं चाय का प्याला और पकोड़े हाथ में लिए
तो कोई बैठा हैं चूल्हे की लकड़ियाँ गीली होने का तनाव लिए
किसी के लिए मौसम सुहावना बन गया तो किसी के लिए डरावना
कोई खुश हैं अपने मकानों की रँगत देख कर
तो कोई दुबके बैठा हैं टपकती छत के नीचे कम्बल लेकर
कोई सोचता हैं चलो आज स्कूल जाना नहीं होगा
तो कोई सोचता आज दफतर ना पहुंचा तो क्या होगा
कोई मिला होगा बरसात में अपनी मोहब्बत से
तो कोई रो रहा होगा याद कर कि बरसात में कोई बिछड़ा था हमसे
नहीं होते बरसात के मायने हर किसी के लिए एक जैसे
सभी के लिए होते हैं एक सिक्के के दो पहलू हों जैसे.....!!

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26 MAY AT 22:43

मुसाफिर तु चलता जा, मंजिल कि ना तलाश कर
वादियों को याद कर, एक खुशनुमा मंजर तो होगा
तू उसको सिर्फ याद कर
क्या मतलब मंजिल मिले ना मिले
तू खुद में ही रास्तों कि तलाश कर
रूकना है, बेसबब रूक, चलना है बेसबब चल
पर भीड़ में घिरे मुसाफिर, तू खुद से खुद की पहचान कर
रात है, उदास है, फिर अंधकार है
तू स्वयं सूर्य बन, स्वयं में प्रकाश कर
टुटे हुए ख्वाब है, जिंदगी मझधार है
तू स्वयं तुफान बन, समंदर को पार कर

कौन तेरे साथ है कौन तेरे खिलाफ है
इसका ना ध्यान कर,तु स्वयं ब्रह्मांड बन
किसके लिए जीना,कब तक जीना
इसका ना ख्याल कर, राहों को तु पार कर
कौन बूत,कौन ईश ऐसा ना सवाल कर
तु एक इंसान हैं सिर्फ एक इंसान बन

सुर्य,चंद्र,ग्रह,समय कब‌, कहां रूके है
अपना अंतिम लक्ष्य पाने, वो सदा चलें है
फिर तु क्यूं हताश हैं, ये सारा जग तेरे साथ है
इसलिए मुस्कुरा, चल और मंजिल की तलाश कर

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17 APR AT 16:47

बहती हुई धारा जैसे तुम,
पाक, साफ़, निर्मल, अत्यंत पवित्र,
हो जाओगे,
जब पाओगे अपने आप को,
अपनी असफलताओं में,
समझोगे, जानोगे,
कि तुम्हारी जीत, हारने के बाद आएगी,
हार जाना तुम्हारी जीत को रोक नहीं पाएगा,
जब तुम शुद्ध हो जाओगे, आज़ाद हो जाओगे,
जीतने और हारने के,
बे-माने, व्यर्थ मतलबों से,
दोष रहित हो जाओगे, भीतर से, बाहर से,
वो क्षण होगा,
जब तुम्हारी जीत की शुरुआत होगी,
क्यूँ की जीतने के लिए, जीत से ज़्यादा,
हार ना मान ने वाले, पवित्र मन की आवश्यकता है,
आज, अभी और हमेशा के लिए ।

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10 APR AT 18:58

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।

जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा

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7 APR AT 20:58

है कोई।
जिसे कुछ न चाहिए हो।
है कोई।
जो साथ रोने का साथी हो।
है कोई
जिसके लिए सिर्फ प्रेम काफी हो।
है कोई
जो भावनाओं से भरा हो।
है कोई
जो आंखों की भाषा पढ़ा हो।

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31 MAR AT 16:40

ना जाने क्यों और क्या लिखने की कोशिश कर रहा हूँ,
क्योंकि शब्द और मौन के संसर्ग से परे हो जाने पर,
व्यक्ति, उस से जुड़े रिश्ते, जिस अवस्था में पहुँच जाते हैं,
वहां प्रेम का स्पर्श, निराशा की धुत्कार, कुछ नहीं पहुंचता! 

ऐसा नहीं है कि शब्दों का वजन कम हो जाता है या ख़ामोशी कम चीखती है,
पर मन अपनी हद से ज्यादा भार उठाने में सक्षम हो जाता है
और बाहर के शोर में चीखें फीकी पड़ जाती है
तुम और मैं जिस अवस्था में हैं, वह अगोचर की रेखा के अंतिम बिंदु से जितनी निकट है,
गोचर की परिधि में भी उतनी ही समाहित हैं। 

बहरहाल आसमाँ के नीचे अपनी एकाकी में बैठा व्यक्ति छत के नीचे नहीं जाना चाहता,
क्योंकि छत से रिसने वाली पानी की बूंदे,
ना सिर्फ छत को कमजोर करती हैं बल्कि जीना भी मुहाल करती हैं
और जिसे आदत हो पीड़ा से पार पाकर पारितोषिक की,
वह क्यों न चुनेगा आसमाँ।

इसीलिए सोचा कि आसमान की छत को ताकते हुए,
तुम्हे लिखूँ, क्योंकि चाहे जीवन के अंतिम बिंदु तक ही सही,
तुम और मैं, अगोचर या गोचर, रहेंगे इसी एक आसमां के नीचे,
इसी आसमाँ की छत के नीचे तुम भी बैठी होगी कहीं,
अपनी एकाकी में, अपने स्पर्श में पीड़ा से अधिक प्रेम लिए
और मैं अपनी पीड़ा में पारितोषिक

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31 MAR AT 9:08

बातें वो बड़ी खास होती हैं
जिनके अल्फ़ाज़,
लफ़्ज़ नहीं, आंसू होते हैं
जिनको लबों से नहीं,
आंखों से कहा जाता है...

बातें वो बड़ी खास होती हैं
जिनके अल्फ़ाज़,
शोर नहीं, खामोशी होती हैं
जो बयां नहीं होती,
बस महसूस की जाती है...

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30 MAR AT 10:04

सुनो तुम शेरनी हो,शेरनी ही रहना।
अन्याय डर जाए,ऐसी दहाड़ भरना।

तुम्हारी गर्जना से कांप उठे आकाश भी,
पापी तुम्हारे सामनें थरथराए इतनी योग्य बनना।

दुर्गा का अवतार हो तुम, हो काली की उपासक,
मार्ग में आए दुष्टों से क्या डरना।
पापियों की भुजा उखाड़, मुंडो की माला तुम धारण करना।

थर-थर कांपे राक्षस दल,
तुम वो आदिशक्ति बनना।
सौम्य रहना तुम सभ्य लोगों के लिए,
पर पापियों के लिए तुम चंडी रूप धारण करना।

साहस का प्रतीक हो तुम,
दुनिया की सहानुभूति का पात्र क्यूॅं बनना।
लोमड़ी सी चतुराई और चील सी आँखें तेज रखना।
साहस, स्वाभिमान और दृढनिश्चय से तुम अपना श्रृंगार करना।

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27 MAR AT 22:11

जीने का अरमान नहीं है
मरना भी आसान नहीं है

माथा पकड़े बैठ गया हूं 
क्यूं ये बढ़ता ज्ञान नहीं है

इतना दुःख इतनी तकलीफ़ हैं
लगता है भगवान नहीं है

जीने का अरमान नहीं है
मरना भी आसान नहीं है

पशु बने फिरते हैं सारे
कोई भी इंसान नहीं है

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25 MAR AT 22:52

अगर सब साथ होते तो,
संघर्ष की जरूरत ही नहीं पड़ती
अगर सब सबकी सुनते
फिर एक सूत्र में मिलकर कार्य
करते तो बात ही अलग होती

भेदभाव की ज्वाला को दूर रखकर,
मन के माया जाल से परे होकर
द्वेषभाव का मैल उतारकर
सूरज सा मिलकर सब तपते
तो बात ही कुछ और होती

बिना किसी कांट छांट के,
बेबाक आवाज से
मिलकर सुरीला राग छेड़ते
अपनेपन के भाव से बेझिझक
आवाज से आवाज जोड़ते
तो बात ही कुछ और होती!

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