रोटी जल गई ,चाय उबल गई
पानी बह गया , दूध गिर गया
मैं रोया अकेला और अकेला सम्भल गया
भोर हुई फिर शाम हुई पढ़ता रहा
बस यूं चलते चलते
जिदंगी आबाद हुई
अब ना रोटी जलती है न चाय उबलती है
दिन भर बस कम्प्यूटर पर
जिंदगी गुजरती है-
असर अक्सर गहरा होता है, बेजुबाँ प्यार का..!
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मैं अब इस बढ़ती उम्र में
प्रेम नहीं बल्कि दुलार की आशा करता हूं
मैं भले उम्र में बढ़ रहा हूं
पर एक बच्चे सा दिल रखता हूं
थक जाऊं अगर इस जग से
ममता भरा इक स्पर्श चाहता हूं
ढूंढ पाता नहीं कोई संगी साथी अगर
तो राहगीर और अंजानो से दुख साझा करता हूं
कहते हैं जिसके पास जो नहीं होता
वह उसके लिए ही तरसता है
एक वक्त था जब मैं चुने जाने की आस लगाता था
पर मैं दर-दर ठुकराए जाने पर भी
बस अपनाए जाने कि आस लगाता था
अब मैं किसी आश्रय की आस ना लगाऊं बस यह चाहता हूं
किसी का साथ हो सफर में तो भी भला
पर अब मैं अकेले चलने से भी ना घबराता हूं
मैं अब इस बढ़ती उम्र में
प्रेम नहीं बल्कि दुलार की आशा करता हूं-
सफ़र तब तक जब तक रब चाहें,,
अब कौन जंग करें! खुदा क्या चाहे!
वो चाहे तो आबाद करें चाहे तो बर्बाद करे,
अब दुनिया उसकी, मर्जी उसकी..
अब इसपर बेमतलब क्यूं विवाद करें..-
ये बारिश की बूँदे एक जैसी दिखने पर भी एक जैसी नहीं होती
किसी के दिल का सुकूँ हैं ये बूँदे
तो किसी के मन को झकझोर देती हैं ये बूँदे
कोई बैठा हैं चाय का प्याला और पकोड़े हाथ में लिए
तो कोई बैठा हैं चूल्हे की लकड़ियाँ गीली होने का तनाव लिए
किसी के लिए मौसम सुहावना बन गया तो किसी के लिए डरावना
कोई खुश हैं अपने मकानों की रँगत देख कर
तो कोई दुबके बैठा हैं टपकती छत के नीचे कम्बल लेकर
कोई सोचता हैं चलो आज स्कूल जाना नहीं होगा
तो कोई सोचता आज दफतर ना पहुंचा तो क्या होगा
कोई मिला होगा बरसात में अपनी मोहब्बत से
तो कोई रो रहा होगा याद कर कि बरसात में कोई बिछड़ा था हमसे
नहीं होते बरसात के मायने हर किसी के लिए एक जैसे
सभी के लिए होते हैं एक सिक्के के दो पहलू हों जैसे.....!!-
मुसाफिर तु चलता जा, मंजिल कि ना तलाश कर
वादियों को याद कर, एक खुशनुमा मंजर तो होगा
तू उसको सिर्फ याद कर
क्या मतलब मंजिल मिले ना मिले
तू खुद में ही रास्तों कि तलाश कर
रूकना है, बेसबब रूक, चलना है बेसबब चल
पर भीड़ में घिरे मुसाफिर, तू खुद से खुद की पहचान कर
रात है, उदास है, फिर अंधकार है
तू स्वयं सूर्य बन, स्वयं में प्रकाश कर
टुटे हुए ख्वाब है, जिंदगी मझधार है
तू स्वयं तुफान बन, समंदर को पार कर
कौन तेरे साथ है कौन तेरे खिलाफ है
इसका ना ध्यान कर,तु स्वयं ब्रह्मांड बन
किसके लिए जीना,कब तक जीना
इसका ना ख्याल कर, राहों को तु पार कर
कौन बूत,कौन ईश ऐसा ना सवाल कर
तु एक इंसान हैं सिर्फ एक इंसान बन
सुर्य,चंद्र,ग्रह,समय कब, कहां रूके है
अपना अंतिम लक्ष्य पाने, वो सदा चलें है
फिर तु क्यूं हताश हैं, ये सारा जग तेरे साथ है
इसलिए मुस्कुरा, चल और मंजिल की तलाश कर-
बहती हुई धारा जैसे तुम,
पाक, साफ़, निर्मल, अत्यंत पवित्र,
हो जाओगे,
जब पाओगे अपने आप को,
अपनी असफलताओं में,
समझोगे, जानोगे,
कि तुम्हारी जीत, हारने के बाद आएगी,
हार जाना तुम्हारी जीत को रोक नहीं पाएगा,
जब तुम शुद्ध हो जाओगे, आज़ाद हो जाओगे,
जीतने और हारने के,
बे-माने, व्यर्थ मतलबों से,
दोष रहित हो जाओगे, भीतर से, बाहर से,
वो क्षण होगा,
जब तुम्हारी जीत की शुरुआत होगी,
क्यूँ की जीतने के लिए, जीत से ज़्यादा,
हार ना मान ने वाले, पवित्र मन की आवश्यकता है,
आज, अभी और हमेशा के लिए ।-
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा-
है कोई।
जिसे कुछ न चाहिए हो।
है कोई।
जो साथ रोने का साथी हो।
है कोई
जिसके लिए सिर्फ प्रेम काफी हो।
है कोई
जो भावनाओं से भरा हो।
है कोई
जो आंखों की भाषा पढ़ा हो।-
ना जाने क्यों और क्या लिखने की कोशिश कर रहा हूँ,
क्योंकि शब्द और मौन के संसर्ग से परे हो जाने पर,
व्यक्ति, उस से जुड़े रिश्ते, जिस अवस्था में पहुँच जाते हैं,
वहां प्रेम का स्पर्श, निराशा की धुत्कार, कुछ नहीं पहुंचता!
ऐसा नहीं है कि शब्दों का वजन कम हो जाता है या ख़ामोशी कम चीखती है,
पर मन अपनी हद से ज्यादा भार उठाने में सक्षम हो जाता है
और बाहर के शोर में चीखें फीकी पड़ जाती है
तुम और मैं जिस अवस्था में हैं, वह अगोचर की रेखा के अंतिम बिंदु से जितनी निकट है,
गोचर की परिधि में भी उतनी ही समाहित हैं।
बहरहाल आसमाँ के नीचे अपनी एकाकी में बैठा व्यक्ति छत के नीचे नहीं जाना चाहता,
क्योंकि छत से रिसने वाली पानी की बूंदे,
ना सिर्फ छत को कमजोर करती हैं बल्कि जीना भी मुहाल करती हैं
और जिसे आदत हो पीड़ा से पार पाकर पारितोषिक की,
वह क्यों न चुनेगा आसमाँ।
इसीलिए सोचा कि आसमान की छत को ताकते हुए,
तुम्हे लिखूँ, क्योंकि चाहे जीवन के अंतिम बिंदु तक ही सही,
तुम और मैं, अगोचर या गोचर, रहेंगे इसी एक आसमां के नीचे,
इसी आसमाँ की छत के नीचे तुम भी बैठी होगी कहीं,
अपनी एकाकी में, अपने स्पर्श में पीड़ा से अधिक प्रेम लिए
और मैं अपनी पीड़ा में पारितोषिक-
बातें वो बड़ी खास होती हैं
जिनके अल्फ़ाज़,
लफ़्ज़ नहीं, आंसू होते हैं
जिनको लबों से नहीं,
आंखों से कहा जाता है...
बातें वो बड़ी खास होती हैं
जिनके अल्फ़ाज़,
शोर नहीं, खामोशी होती हैं
जो बयां नहीं होती,
बस महसूस की जाती है...-