"हे स्त्री, तुम आज इतनी निर्मम कैसे हो गई?"
तुम तो वैसी नहीं थी...
थी कोमल, करुणा की मूर्ति — ममता की पहचान।
क्या ऐसा परिवर्तन आया कि तुमने
अपना चरित्र, अपनी ममता,
सब कुछ त्याग दिया?
कैसे उजाड़ दिया तुमने
उस माँ के आँचल को...
जो आँचल तुम्हारा भी सहारा था?
हे स्त्री!
ये तुम्हारा चरित्र तो नहीं था।
ये कैसा प्रेम था तुम्हारा
जो तुम्हें स्त्री से हत्यारिन बना गया?
कभी झाँको अपने भीतर —
कभी देखो उस स्त्री को जो तुम थीं...
आज तुमने क्या-क्या खो दिया?
कभी हमें गर्व था —
स्त्री होने पर,
मगर आज...
तुमने पूरी नारी जाति को
शर्मसार कर दिया।
हे स्त्री, तुम आज इतनी निर्मम कैसे हो गई?
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"हे स्त्री, तुम आज इतनी निर्मम कैसे हो गई?"
तुम तो वैसी नहीं थी...
थी कोमल, करुणा की मूर्ति — ममता की पहचान।
क्या ऐसा परिवर्तन आया कि तुमने
अपना चरित्र, अपनी ममता,
सब कुछ त्याग दिया?
कैसे उजाड़ दिया तुमने
उस माँ के आँचल को...
जो आँचल तुम्हारा भी सहारा था?
हे स्त्री!
ये तुम्हारा चरित्र तो नहीं था।
ये कैसा प्रेम था तुम्हारा
जो तुम्हें स्त्री से हत्यारिन बना गया?
कभी झाँको अपने भीतर —
कभी देखो उस स्त्री को जो तुम थीं...
आज तुमने क्या-क्या खो दिया?
कभी हमें गर्व था —
स्त्री होने पर,
मगर आज...
तुमने पूरी नारी जाति को
शर्मसार कर दिया।
हे स्त्री, तुम आज इतनी निर्मम कैसे हो गई?
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जब साथ थे, हर पल में हँसी थी,
छोटी-छोटी बातों में भी ज़िंदगी बसी थी।
तुम्हारा होना, जैसे सुबह की रौशनी,
और मेरी बातें – जैसे चाय की गर्मी थी।
फिर आई ज़िंदगी में एक नया मोड़,
चले गए हम, लेकर सपनों का जोड़।
जम्मू की वादियों में खो गई मैं,
पर दिल के कोने में तुम अब भी हो कहीं।
कम हो गई बातें, पर कम नहीं हुई यादें,
तुम्हारी वो हँसी, वो ताने, वो फरियादें।
शायद कुछ ख़फ़ा हो तुम, कुछ अनकहे से गिले,
पर दोस्ती तो वही है – जो दूरी में भी मिले।
आदित्य, नाम सिर्फ़ एक नहीं, एक जज़्बा है,
जो हर उदासी में भी एक अपनापन सा लगता है।
अगर बुरा लगा हो कुछ, तो माफ़ी चाहती हूँ,
पर इस दोस्ती के रिश्ते को कभी ना खोना चाहती हूँ।
वक़्त ने चाहे जितना भी बदल दिया हो रंग,
मेरी दोस्ती का एक ही है ढंग –
सच्चा, गहरा, और सदा के लिए,
एक बार मुस्कुरा दो… बस मेरे लिए।
-
एक समय था...
जब छुट्टियाँ सिर्फ तारीख़ें नहीं होती थीं,
एक इंतज़ार होता था — धड़कनों में बसा हुआ।
कैलेंडर के हर पन्ने पर 'घर' लिखा दिखता था,
और हर दिन बस उसी मंज़िल की ओर चलता थाl
वो भी क्या दिन थे...
जब लगता था —
पापा घर पर होंगे,
दरवाज़े पर खड़े, वही प्यारी-सी मुस्कान लिए,
जैसे उन्होंने हर सर्द हवा से कह रखा हो —
"मेरे बच्चे आने वाले हैं..."
घर की दीवारें भी बोलती थीं,
हर कोना जैसे पुकारता था,
"आ गए? कितनी देर लगा दी..."
और पापा की आँखों में वो सुकून —
जैसे सब कुछ पूरा हो गया।
आज भी छुट्टियाँ आती हैं,
पर वो घर अब वैसा नहीं लगता...
वो दरवाज़ा अब बस खुलता है,
पर कोई बाँहें नहीं फैलतीं।
ना वो रसोई की ख़ुशबू है,
ना वो शामें, जो चुपचाप बहुत कुछ कह जाती थीं।
ना पापा की वो शांत पर मजबूत मौजूदगी —
जो हमारे थके मन का सहारा बनती थी।
आज सब कुछ है —
सैलरी, छुट्टियाँ, और समय भी,
पर...
ना वो ख़ुशी है, ना वो हिम्मत।
घर लौटने का मन करता है,
पर दिल... वहीं कहीं पीछे छूट गया है।
-
पापा के जाने के बाद कुछ खो गया है,
जैसे मन का साहस ही सो गया है।
जो थे मेरी ढाल, मेरी आवाज़,
अब हर कोना लगता है ख़ामोश और अल्पबोल।
पहले हर राह आसान लगती थी,
उनकी एक मुस्कान में दुनिया बसती थी।
अब तो खुद से भी बात करने का हौसला नहीं,
आईने में दिखता चेहरा भी अपना नहीं।
सपनों को वो पंख वही तो देते थे,
डर लगे तो चुपचाप हाथ थाम लेते थे।
अब लगता है जैसे रूह भी कांप गई है,
ज़िंदगी से मानो कोई रोशनी छीन गई है।
कमज़ोर नहीं थे हम, मगर अब झुक गए हैं,
हर मोड़ पर बस उनके नाम को पुकारते हैं।
पर उनकी यादें अब भी ताक़त बन जाएं,
इस टूटे मन को फिर से राह दिखाएं।
पापा आप थे तो हम पूरे थे,
अब अधूरे हैं, पर आपकी सीखों से जी रहे हैं।
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तोलो इंसानियत से, न कि सजावट से,
दिल की रोशनी देखो, न कि चेहरे की रंगत से।
क्योंकि वक्त एक दिन सबका नकाब हटा देता है,
और सच्चाई को आईना दिखा देता है।
-
किसी ने कहा —
"महिलाएँ मक्कार होती हैं, झूठ बोलती हैं..."
उसकी बात में नहीं था तर्क,
बस एक संकीर्ण सोच की छाया थी सख्त।
मैं पूछती हूँ —
क्या देखा है तूने माँ की आँखों में आँसू छुपाते हुए?
जब वो खुद भूखी रहकर
तेरे लिए रोटियाँ पकाते हुए?
क्या जाना है तूने उस स्त्री को,
जो हर दिन नए किरदार निभाती है —
कभी बहन, कभी बेटी,तो कभी खुद को भूलती जाती है?
मक्कारी? झूठ?
नारी को मत बाँध संकीर्ण बातों में,
वो तो जलती है हर रोज़
अपनों की मुस्कान की खातिर रातों में।
सच तो ये है नारी झूठ नहीं, बलिदान की परिभाषा है,
मक्कार नहीं,संघर्ष में भी मुस्कुराने की भाषा है।
Neetika Dubey
जिसने जनम दिया, जिसने पाला,
जिसने दुनिया को संवारा,
उसी को गाली देने वाला
कैसा होगा वो प्यारा?
तेरी सोच पर नहीं क्रोध आता,
बस दया आती है,
क्योंकि जो नारी को नहीं समझ पाया,
उसकी जिंदगी अधूरी सी ही रह जाती है।
-
"तेरे बिना भी तू साथ है..."
आज घर में रौशनी है,
फूलों की खुशबू हवा में तैर रही है,
मम्मी की शादी की सालगिरह है,
पर तेरी खामोशी दिल को बहुत गहरा चीर रही है।
पापा...
तू होता तो ये दिन कुछ और ही होता,
तेरे हाथों की मिठास, तेरे शब्दों का स्पर्श,
सब कुछ आज अधूरा सा लगता है,
जैसे कोई गीत जिसकी आख़िरी पंक्ति छूट गई हो।
मम्मी ने आज भी वही सिंपल साड़ी पहनी,
जिसे देखकर तू मुस्काया करता था,
आँखों में सजे आँसू भी आज मुस्कान के साथ हैं,
क्योंकि तेरी यादों में आज भी हर जज़्बात हैं।
तेरे बिना भी तेरी मौजूदगी महसूस होती है,
हर कोने में, हर तस्वीर में,
मम्मी की आँखों की चमक में,
तेरे प्यार की रोशनी झलकती है।
तू दूर है, पर रिश्ते नहीं टूटा करते,
वो साथ जो आत्मा से बंधा हो,
वो समय की दीवारें भी नहीं तोड़ पातीं,
तेरे बिना भी तू आज हमारे साथ है, हर साँस में, हर बात में।
इस सालगिरह पर तेरे हिस्से की बधाई,
मैं मम्मी को दिल से देती हूँ,
क्योंकि तेरे प्यार ने ही तो हमें
प्यार करना सिखाया है… जीना सिखाया है।
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“यूँ ही मत आंक किसी को”
यूँ ही मत आंक किसी को, बस उसकी सूरत देखकर,
हर मोती चमकता नहीं, कुछ गहराइयों में छुपे होते हैं।
जो चुप है, वह नासमझ नहीं, कुछ कहानियाँ अनकही होती हैं,
हर खामोशी के पीछे, एक आग दबी होती है।
जिसे तू समझे सीधा-सादा, हो सकता है वो सबसे आगे निकले,
जो बातें कम करे, वो सोच में सबसे ऊँचा निकले।
बुद्धिमानी का पैमाना न हो लहजा या पहनावा,
कुछ आँखें बोलती हैं ज़्यादा, बिना कुछ कहे ही समझा देती हैं दावा।
हर मुस्कान छलावा नहीं होती, हर ठहराव हार नहीं,
कुछ चेहरे सब्र की मिसाल होते हैं, जिनमें छुपी होती है पूरी ज़िन्दगी की कहानी।
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"दो महीने हो गए, पापा..."
आज पूरे दो महीने हो गए,
जबसे आप हमसे दूर हो गए।
पहले तो बस एक दिन भी जाते,
बार-बार फ़ोन करके हाल बताते।
अब तो सन्नाटा ही सवेरा है,
हर आवाज़ में एक अंधेरा है।
कहाँ चले गए आप अचानक से,
छोड़ गए यादें इस जीवन के मंच से।
पापा, प्लीज़ अब लौट आइए,
एक बार मुझे फिर से गले लगाइए।
हर पल आपको पुकार रही हूँ,
आपकी बेटी बेजुबान सी रह गई हूँ।
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