ईद आई मौला गर वो आता तो क्या जाता
बिखरा तो था ही गर चुन पाता तो क्या जाता
इश्क़, शफकत, इनायत सब है उसके लिए
अगर वो भी जरा सी झलक जताता तो क्या जाता
कभी दूर था, कभी पास था वो अपना सा
मेरे दिल में था, पर दिल पाता तो क्या जाता
रूह तक मेरी, वो समझता था बेवजह
अगर वो थोड़ा सा महसूस कर पाता तो क्या जाता
वो खुदा का कोई हुक्म था या इत्तेफाक
उसकी चाहत में मैंने खुद को खो दिया
इतनी भी ख्वाहिशें, ये अजनबी क्यों हो गए
अगर वो मेरी तक़दीर में होता तो क्या जाता!-
वाे लफ्जाें में पिराेया है
जब तू अपना था ताे
अब काैन? यूँ पराया है!
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सच को सच कहे उसे दार दो
ऐसे ही तुम खुद को निखार दो
फलसफा न तर्क है कोई अब
कह दिया चाहो तो छुड़ा मार दो
सदियों से जो घुट रहा है गला
अब उस आवाज़ को पुकार दो
खामोशियों से न होगी तब्दीली
हक़ की लौ को फिर से संवार दो
अंधेरों से मत करो अब समझौता
उजाले की जमीं पर वार दो
ज़ुल्म के साये में कब तक रहोगे?
इंकलाब की सदा को दहाड़ दो!-
कोई मेरी समझ तक समझ नहीं पाता
बहुत आसान है समझ का रिश्ता मेरा
मैंने हर बार खुद को ही आज़माया है
पर मुश्किल रहा खुद से वाबस्ता मेरा
हर सवाल का जवाब तो मौजूद था मगर
खुद से पूछता रहा हूँ मसला मेरा
दर्द के सिलसिले ने यूं साथ दिया है
अब तो हर घड़ी बन गया किस्सा मेरा
नाहिद की ग़ज़लें हैं दिल से निकली हुई
हर शेर में झलकता है किस्सा मेरा-
समंदर की लहरों में डूबा तो फिर न निकलूंगा,
ऐसा सोचने वालों, फ़क़त ये सोचते रहना।
क़ादिर है वो सब पर, बन्दा हूँ मैं उसी का,
जिसने यूनुस को मछली के पेट में जिंदा रखा था।
अंधेरों में रहकर भी उम्मीद ना खोऊँगा,
उसके करम से मैं किनारे भी आऊँगा।
तूफाँ की लहरें मेरा कुछ ना बिगाड़ पाएँगी,
जब साथ है मौला, तो मुश्किल भी मुस्कुराएँगी।
सजदे में गिरूँगा, फरियाद करूँगा,
हर दर्द में भी उसका शुक्र अदा करूँगा।
डूबूँगा नहीं, वो उबारने वाला है,
हर हाल में मेरा रब संभालने वाला है।-
मझधार में फंसा हूँ या रब, किनारा लगा दे,
ठोकरें खा चुका हूँ बहुत, अब सहारा बना दे।
थक गया हूँ सँभलते-सँभलते सफर में,
अब तो मेरी कश्ती को कोई किनारा मिला दे।
उलझनों के धुएँ में बुझती चली रोशनी,
अब अंधेरों में कोई दीपक हमारा जला दे।
ख्वाहिशों के समंदर में डूबा हुआ हूँ,
या तो साहिल दिखा दे, या फिर किनारा मिला दे।
या रब, अब नहीं हो सकता, अब मिला दे,
बिछड़ों को फिर से मोहब्बत का राह दिखा दे।-
मिलाया था तूने ही ज़ुलेखा को यूसुफ़ से,
कर दे अब्र-ए-करम मुझपर भी, ऐ क़ादिर-ए-मुतलक़।
ठहरा हुआ हूँ सदियों से तेरी रहमत की राहों में,
उठा दे अब मेरे हक़ में भी कोई लम्हा-ए-मुबारक।
कूवत नहीं मुझमें अब इतनी आज़माइशों की,
हर सांस बोझ बनती जा रही है अब मुझपर।
मिला दे अब मुझको भी, ऐ ख़ालिक़-ए-ख़ल्क़,
बिछड़ते-बिछड़ते थक गया हूँ इस मुक़द्दर से लड़कर।
तेरे ही बंदों में से हूँ, कोई बेगाना नहीं,
तेरी रहमत से जुदा कोई अफ़साना नहीं।
गर मोहब्बत भी तेरी ही तक़सीम का हिस्सा है,
तो मेरी झोली भी अब ख़ाली पैमाना नहीं।
देख, अब्र भी बरसता नहीं इन सूखी ज़मीनों पर,
देख, मेरी दुआ भी अटकी है तेरी राहों में।
गर हर क़िस्सा मुकम्मल होता है तेरी मर्ज़ी से,
तो क्यों अधूरा हूँ मैं इन बेज़ुबान आहों में?-
रहता है सब मुझसे रूठा-रूठा,
ख़ुदा रा बता, क्या इतना बदकार हूँ मैं?
हर एक साया भी मुझसे किनारा किए है,
क्या सच में इतना गुनहगार हूँ मैं?
चलते रहे रास्ते मेरे वीरानियों में,
ख़्वाबों की नगरी भी उजड़ने लगी,
अब मेरा कोई भी ग़मशानी,
ख़ुदा रा, तेरी ही मेहरबानी का तलबगार हूँ मैं।
सहर की किरणें भी धुंधला गई हैं,
रातों की तनहाइयाँ और भारी हुई हैं,
दिल में उमड़ते सवालों की बारिश में,
कहीं मेरी हस्ती ही ख़ाकसार हुई है।
अगर मेरी सिसकियों में कोई मंशा नहीं,
अगर मेरी तन्हाई में कोई सदा नहीं,
तो बता ऐ रहमतों के दरवाज़े वाले,
क्या तेरे करम से भी बेइख्तियार हूँ मैं?-