Naresh Saxena   (Naresh Saxena)
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Joined 28 December 2016


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Joined 28 December 2016
18 APR AT 19:31

अगर आसान हुए, तो सबक कैसे?
सीखना पड़ता हैं मर मर के इन्हें।

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6 APR AT 8:58

अपने बनाये पिंजरे की क़ैद से,
बाहर निकलने की छटपटाहट,
काल्पनिक सलाखों से टकराकर,
निःशब्द चीख़, और फिर सन्नाटा,
रोज़ रोज़ यही दोहराता रहता हूँ,
पिंजरे से बाहर नहीं निकल पाता हूं।।

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28 MAR AT 22:09

जिसे तलब तुम्हारी, उसे पता हैं,
क्यूं कर इतना नशा जरूरी है।।

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25 MAR AT 10:15

माना,
तुम अब किसी और की हो ली,
फिर भी तुम्हें,
हैप्पी होली।

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25 MAR AT 10:09

सतरंगी इंद्रधनुष के रंगों में,
जहाँ एक रंग दूसरे से मिलता हैं,
उन्ही बारीक लकीरों में,
तुम्हारा चेहरा तलाशता,
अपने हाथ में गुलाल लिए,
तुम्हारा रास्ता निहारता।।

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23 MAR AT 9:39

फिर बहकने का मन हो, तो मिलना मुझसे,
फिर कुछ और दिन साथ साथ जी लेंगे हम।

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19 MAR AT 21:04

सही ग़लत जानता हूँ, पर मानता नहीं,
मुझे मर्ज़ हैं, मुझे लत हैं, मुझे इश्क हैं।

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17 MAR AT 8:31

मैंने बेतहाशा ख़र्च किया खुद को,
अब भीख माँग रहा हूँ अपनी ही।।

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7 MAR AT 9:11

अनवरत, प्रयासरत हूँ,
इंसान बनने के लिए,
यक़ीन मानो,
ये मुश्किल है,
हम सब के लिए।

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6 MAR AT 8:50

मैं अब भी मुड़ कर देखता हूँ तुम्हें,
पर मैं ठहरा नहीं, आगे बढ़ रहा हूँ।

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