Narendra Vyas   (नरेन्द्र व्यास)
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Joined 7 June 2025


Joined 7 June 2025
28 JUN AT 0:09

सूखे पीले पड़े पत्तों मे
दिख जाता है
हरा अतीत

हरे से पीले होने तक
हवा का यूँ फ़िर जाना
बिलकुल
तुम्हारे जैसा है।

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18 JUN AT 23:42

दृश्य होती स्मृतियाँ

कभी-कभी
आँखें बंद करने से
दृश्य नहीं मिटते-
वे उभरने लगते हैं,
और
स्मृतियाँ
छायाचित्र नहीं,
चलचित्र बन जाती हैं।

एक दुपहरी की धूप-
जिसमें माँ की परछाईं थी
और बर्तनों की खनक-
आज भी उसी कोण पर गिरती है
मेरी बंद आँखों में।

पुराना घर
अब नहीं रहा-
पर उसकी दीवारें
अब भी रात को सपनों में गिरती हैं
और मैं
हर बार नींव पकड़ लेता हूँ।

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10 JUN AT 0:58

हर बार हारना,
ज़रूरी नहीं कि कमज़ोर होना हो-
कभी-कभी
ये खुद से बड़ा होना भी होता है।

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9 JUN AT 14:14

- अग्निमाला -

मैंने अग्नि से कहा-
"जलो,
पर उसे मत जलाना
जो मेरे हृदय की छाया है।"

वह झुकी,
और तुम्हारा नाम
एक-एक लौ पर लिख दिया।

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9 JUN AT 14:08

ओ पत्तों की जात!
तुम भी प्रेम में थे क्या कभी?
या बस
हवा की उँगली पकड़
चल दिए उस ओर
जहाँ न शाखें थीं
न जड़ें-
सिर्फ कोई प्रतीक्षा…
किसी आँख की ओस में
भीग जाने की।
- नरेन्द्र व्यास

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7 JUN AT 21:17

मुश्किल तो ये है-
कि हर उत्तर से पहले
एक और प्रश्न उग आता है,
जैसे रेत में दबा बीज
बिना पानी के भी
अँधेरों में अंकुरित हो उठता है।

मुश्किल ये नहीं कि राह नहीं,
मुश्किल ये है-
कि हर मोड़ पर
अपनी ही परछाईं
कंधा पकड़ कर पूछती है-
“क्या तू सच में वहीं जा रहा है
जहाँ तेरा तेरा गंतव्य है?”

मुश्किल ये है-
कि भीतर
कभी चुप्पी चीख़ने लगती है,
और शब्द...
बस होंठों के किनारे
ठिठके रह जाते हैं।

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7 JUN AT 20:16

यह ज़रूरी है
कि हम एक-दूसरे की थकान को
मज़बूती से नहीं,
संवेदना से समझें।

कभी किसी की आँखों के नीचे की झुर्रियाँ
उसके बुढ़ापे का नहीं,
कभी न कहे गए दुःखों का मानचित्र होती हैं।

कभी किसी की खामोशी
उसकी विद्वता नहीं,
बल्कि अंतिम सीमा पर टिके जीवन का
शब्दहीन गान होती है।

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7 JUN AT 19:35

जब दरवाज़ा नहीं खुलता,
तब सिर्फ़ कुंडी ज़िद नहीं करती-
अक्सर भीतर कोई पुरानी साँकल
चुपचाप कस जाती है।

चाबी घूमती है,
पर हाथ नहीं, दिल थक जाता है।

तब समझ आता है-
कुछ दरवाज़े
ताले से नहीं,
यादों से बंद होते हैं।

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7 JUN AT 19:27

जहाँ मै कभी गया नहीं था

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7 JUN AT 19:25

रवि को बचपन से अंधेरे से डर लगता था।
बिजली चली जाती, तो वह पसीने-पसीने हो जाता।
एक रात, ऑफिस से लौटते वक़्त लिफ्ट बंद थी-
उसे चौदहवीं मंज़िल तक सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं। हर मंज़िल के कोने में, एक हल्की-सी छाया चलती दिखती।
साँसें तेज़, कदम धीमे, और डर... भारी होता गया।
आख़िरकार घर पहुँचा—दरवाज़ा खोला, अंदर घुसा।
आईने में देखा—वही छाया, उसके पीछे थी।
उसी क्षण समझा- "मैं जिससे डरता रहा...
वो तो सालों से मेरे ही भीतर रहता था।"

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