दिन भर निराश, हताश, हजारों ख्वाहिशें ढो रहा है,
वो अपनी बेबसी पर अब बस सपनों में रो रहा है,
अज़ीब दौर है इंसान की प्यास है इंसान का ख़ून,
वो अक्सर सोचता है ये क्या हो रहा है, क्यूं हो रहा है,
फूल की चाह है कांटे बिछाने वालों को भी,
कर्म के काल में उसे वही मिलता है जो वो बो रहा है,
सियासी बादलों में बस अमीरों के घर बरसात हुई,
ये गरीब का वक्त है जो अब भी सो रहा है,
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ज़ो कुढ़ता है, वही गुढ़ता हुँ,
पन्छी बनना था मुझे, आदमी बना दिय... read more
उसे उसमें दिखे कई शख़्स,
आईना बदल दिया,
सच को झूठ में बदला,
और फिर मायना बदल दिया,
बदल दिया कहानी का हिस्सा,
जहां मिलना लिखा था,
जज़बात बदले,दिल बदले,
और फिर जीना बदल दिया,
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आदि से मैं अंत तक
साधना से संत तक,
काल का ये चक्र है,
राजा से कोई रंक तक,
किरदार रूठ से गए,
किस्से भी टूट से गए,
कहानियां भी खामोश है,
अल्प से अत्यंत तक,
जो है यहां वो है नही,
जो था गलत वो अब सही,
सब एक हो रहा है एक सा,
शून्य से अनंत तक,-
रूह दफ़न थी, नक़ाब हटाने का हौसला नही हुआ,
खुद पे चढ़ी कफ़न है, गुनाहों का फैसला नही हुआ,
एक उम्र गुजरी इश्क में, बची यादों में कट गई,
उस सावन जैसा फिर कोई सिलसिला नही हुआ,
मेरा लाख बुरा चाहे, मुझे बद्दुआ भी दे,
दूरियां है उस शख्स से पर फासला नही हुआ,
कहने को फिरता है ,"वत्स" है आजाद परिंदा,
डाल मिली बहुत पर नसीब घोंसला नही हुआ,
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एक टूटा ख़्वाब,
एक छूटा दोस्त,
एक अधूरी बात,
सुबह का डर, और
खामोश सी रात,
मैंने छोड़े है शहर,
लोग, मकान और ढेरों जज़्बात,
पूरा होने और पाने की तड़प,
और अधूरा रह जाने की प्यास,
मुक्कमल बातों में एक "काश",
जैसे जिंदा भीड़ में चलती हुई बहुत सारी लाश,
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मैं मुस्करा देता हूं,
उस हर बात पे जो मुझे दुखी करना चाहती है,
तुम्हारे कीचड़ के छीटों पे मेरा ध्यान नही,
मैं ख़ुद के दलदल से एक फूल ढूंढता हूं,
किसी के बालो के लिए,
मैं अपने आसमान पे कविताएं लिखता हूं,
किसी के मेरा होने पे,
मैं सिसक, उलझन, मायूसी , बदकिस्मती,
को जीवंत देखकर उदास नही हूं,
हैरान हूं,
परेशान होना छूटता जा रहा है,
तुम्हारे हर गलत, सही, ऊंच , नीच,
फरेब ,
ख्याल और बात पर,
मैं कुछ नही कहता,
बस,
मैं मुस्करा देता हूं,-
सुबह होने लगी है,
रात रोने लगी है,
अंधेरों को नींद आई है,
रात ख़ुद सोने लगी है,
उजालों का ये ऐलान है,
रात को ख़बर कर दो,
रोशनियों की जीत है,
अंधेरों को "कबर" कर दो,
देखो धूप मुस्करा कर,
खुशियों के बीज बोने लगी है,
अंधेरों को नींद आई है,
रात ख़ुद सोने लगी है,-
मेरी मिथ्या खत्म की, अब हुआ यथार्थ मैं,
एक तुमको ढूढता बना गया हूं पार्थ मैं,-
निहागें ऊंची और बस चलते मेरे पांव है,
कंधो पे उम्मीदें , और पीठ पे मेरा गांव है,
जल चुका है जब बदन सपनों की आग से,
क्या फ़र्क "वत्स" अब यहां धूप है कि छांव है,
जिंदगी ने मुश्किलों में जीना सिखाया इस तरह,
मैं बीच समंदर में और कागज़ की मेरी नाव है,
वो और होंगे जो डरते होगें अंजान रास्तों से,
खाएं है मैने ज़ख्म बहुत, ताज़े मेरे घाव है,-