Nandu uninstalled)   (uninstalled)
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Joined 16 March 2020


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28 MINUTES AGO

पेशेंट गया... पर कमरे में साँसें अब भी काँपती हैं,
दीवारें अभी तक कफ़न ओढ़े, ख़ामोशी से झाँकती हैं।

चलते-फिरते लोग हैं — पर आँखों में हिज़्र का पानी,
हर चेहरा जैसे बचे हुए दुःख की पुरानी कहानी।

रात जली है — बिना आग, बिना धुएँ के धधकती,
नींदें सोई नहीं... जागी भी नहीं... बस भटकती।

बातें हैं... पर ज़ुबान नहीं — दिल में दरारें हैं गहरी,
साँस है — पर हर साँस में एक चीख़ है ठहरी।

जब इंसान ख़ुद से मुंह मोड़े — तो वजूद भी डरता है,
और आईने में चेहरा नहीं — एक सवाल ठहरता है।

पलकों पर अश्क नहीं — पर नमी रुकती नहीं,
आवाज़ की जगह अब... सिर्फ़ एक चुप्पी रहती है वहीं।

और साए... वो भी अब गले लगते नहीं,
चुप की चादर ओढ़े — हर चीज़ बस रो देती है कहीं।

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17 HOURS AGO

Title: Sweet से Sheet तक
(डायबिटीज़ हॉरर स्टोरी)
(काव्यात्मक और सचेत चेतावनी)


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Scene 5 – ICU का अंतिम सच

सुबह 7:00 AM – Silence in the ICU
डॉक्टर ने गर्दन झुकाई — “गैंग्रीन फैल चुका है।”
पैर काटने की तैयारी थी — लेकिन दिल ने पहले ही इस्तीफा दे दिया।
मशीनों ने आखिरी बीप दी,
और नर्स ने धीरे से चादर खींच दी — अब वह मीठे का हिसाब चुका चुका था।


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उपसंहार (Final Note):
"डायबिटीज़ से मौत अचानक नहीं आती —
वो टुकड़ों में काटती है,
कभी आँखें ले जाती है, कभी गुर्दे, कभी टांगें…
और अंत में इंसान से 'इंसान' छीन लेती है।"

"मीठा अगर दिल को भाए —
तो याद रखना, ये वही है जो दिल को बंद भी कर देता है।"


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#DiabetesAwareness
#SweetToSheet
#SugarKills
#DiabetesHorror
#HealthIsWealth

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20 HOURS AGO

The mirror showed fogged eyes,
a yellow face, cracking lips.
He smiled at it, "I’m okay."
But from behind the glass,
a cold voice echoed:
"You’re almost out of time."

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YESTERDAY AT 12:10

अकथ्य
दर्द छिपा
शब्दों में जिया
मंच पर आत्मा रोई
अकेलापन बना उसका संवाद
सपनों की राख में जलती रही पहचान
फिर भी भीतर कहीं बुझा नहीं दीपक
टूटन से भी उमड़े नए जीवन के स्वर
दुख और सुख दोनों थे उसके राग
हर द्वंद ही जीवन का संगीत
छाया और प्रकाश
साथ-साथ
संतुलन

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YESTERDAY AT 9:36

"लफ़्ज़ों में जीवन—एक महाकवि की कथा"

वो कवि नहीं, एक तीर्थ है,
जहाँ हर शब्द में आत्मा स्नान करती है।
जहाँ श्लोकों से जल नहीं, दिशा बहती है—
और हर पाठक खुद को स्वयं में गहरा पाता है।

जब समाज में द्वंद्व हो, तो उसकी कविता में संतुलन उतरता है,
जब हृदय में घबराहट हो, तो उसकी रचना में मौन उतरता है।
वो समाधान नहीं बताता—वो समझने की क्षमता जगा देता है,
वो दर्शन नहीं सिखाता—वो दृष्टि का जन्म कर देता है।

हर वर्ग का आदमी जब थक जाए, टूट जाए,
उसकी कविता में वो स्वरुप की छाया पाता है।
उसके लफ़्ज़ सिर्फ शब्द नहीं—
वो सत्य के शिवलिंग हैं, जो भीतर बैठकर आरती करवाते हैं।

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8 MAY AT 17:50

श्रुति आत्मकथा – प्रथम श्लोक
स्मृति के पार जो कुछ है,वहीं से उठती है एक पुकारना शब्दों में, ना दृष्टि में,पर जो सुन लिया जाए, तो स्वयं विलीन हो जाए।रूह को चाहिए वो अनुभूति,
जो तृप्ति नहीं —पूर्ण विसर्जन दे।
जहाँ झाग सी लहरें निरर्थक नहीं,
बल्कि हर फूटन श्रुति की एक झलक हो।
पलकों की झपक में दीप्ति विलीन नहीं होती,
बल्कि हर पलक एक द्वार बनती है,
जिससे समय मुझे देखता है—कि क्या मैं सोया हूँ या
किसी गहन जागरण में डूबा हूँ?
मैं —अथ' से 'इति' तक नहीं,
बल्कि उस क्षण का साक्षी मात्र हूँ
जो कभी प्रारंभ हुआ ही नहीं।बिंब और प्रतिबिंब का संतुलनमुझे द्वंद्व नहीं लगता अब,
बल्कि वह सुर है,जिसमें परम मौन की धुन छिपी है।
और यही है वह श्रवण —जिसे पाने को
मैं नहीं लिखता,
मैं श्रवित होता हूँ।


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8 MAY AT 11:02

शब्दों में नहीं बंधता, मैं मौन की परिभाषा हूं,
हर्ष में भी गंभीर, विष में भी मधुर भाषा हूं।

मैं समय की छाया नहीं, खुद समय का लेखा हूं,
हर युग की आवाज़ हूं, हर जन्म की रेखा हूं।

मेरे दर्द भी पूजा हैं, मेरी पीर प्रार्थना है,
मैं तन्हाई नहीं, स्वयं में ही एक सभा हूं।

दुनिया कहे फसाना, मैं अपने ही अनुभव का राग हूं,
तप में पला तपस्वी, मैं स्वयं ही आग हूं।

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6 MAY AT 10:01

""आख़िरी""
आख़िर कब बजेगा यह आख़िरी घंटा आख़िरी
ये लगातार टन-टन से तन-मन हो गया सुन्न आख़िरी।
आख़िरी कहाँ लगाना चाहता है जीवन,
ये आख़िरी का झंडा ये आख़िरी ।
यह आख़िरी हर बार नया लगता,
आख़िरी — और हर बार आ जाता आख़िरी।
"आख़िरी", "आख़िरी", ये आख़िरी —
यह कब आएगा ये आख़िरी — आख़िरी!
यह दर्द साला कम क्यों नहीं होता,
आख़िरी का चस्का — ये आख़िरी कब?
आख़िरी कहीं का न छोड़ेगा मुझे,
ये आख़िरी ऐसे मोड़ पे छोड़ देगा — ये आख़िरी।
जीने की आरज़ू, जद्दोजहद —
सब हौले-हौले अपने आप शम' जाएगी,
और एक शाम बुझ जाएगी —
आख़िरी, ये शमा — आख़िरी, राख बन जाएगी,
और बस उड़ जाएगी —
आख़िरी न जाने कहाँ —
ये आख़िरी...

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4 MAY AT 18:29

सन्नाटा

ना वो ख़ामोशी है,
ना ही शब्दों की कमी।
ये तो एक दस्तरख़्वान है,
जहाँ वक़्त खुद नज़्रें झुका कर बैठता है।

यहाँ आवाज़ें अपनी परछाइयों से डरती हैं,
और ख़्याल रेशमी पर्दों में सरसराते हैं।
सन्नाटा —
वो दरबार है जहाँ
दिल की हर धड़कन को सुनवाई मिलती है।
यहाँ कोई बोले तो भी,
और चुप रहे तो भी —
हर बात रूह में उतरती है जैसे
गंगा उतरती हो पहाड़ से।

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30 APR AT 22:02

किसी जन्म का अधूरा प्रश्न हैं हम,
कोई राग, जो रगों से नहीं—
रूहों से बहा था कभी।
रिश्ते, जो नाम नहीं मांगते,
बस एक झलक में सदियों का
संगीत छोड़ जाते हैं।

ये जो लोग मिलते हैं यूँ ही सड़कों पर,
वो सिर्फ संयोग नहीं—वंश की
विस्मृत लहरें होती हैं।
कभी नब्ज़ से बाहर, कभी दृष्टि के पार,
कभी खामोशियों में बोलते हुए,
ये वो हैं — जिनमें रगों से ज़्यादा रिश्ते होते हैं।

न खून, न कुल, न कोई वंशावली,
बस कोई पुराना स्पंदन,
जो फिर से अज्ञात पुल बनाता है आत्माओं के बीच।

और जब कोई पूछे—
"ये कौन था जो यूँ ही भीतर उतर गया?"
तो बस कह देना—
“वो मेरा वह हिस्सा था, जो शायद मुझसे भी पुराना था।”

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