ना कुछ पाना है
कि ना कुछ छूट गया है।
जो है वो ही है,
वह हर सांस में है।
जीवन बहता है,
और मैं स्वयं ठहरा हूँ।
जो बीत गया वो सिखा गया,
जो बचा है वो बुला रहा है।
कोई मंज़िल नहीं चाहिए अब,
बस ये रास्ता
थोड़ा अपना लगे।
दुनिया मुसाफिर का सपना लगे
मैं कुछ नहीं बनना चाहता,
बस थोड़ा और "होना"
चाहता हूँ।
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सब कुछ सुंदर कल्याण कह दिया पर
अनुभूति को तो सौंदर्य क्यों ही ना बना सके ।
हकीकत का दर्शन ही अंतिम सुदर्शन निकला
इस से ही जीवन आत्मसात कर सके ।
यथार्थ को चाहे, स्वार्थ को विस्तारे ,परमार्थ को
संवारे बस यूं ही बेखुदी की यात्रा हो सके।
ध्वन्यर्थ से अर्थ से भावार्थ से पर्दा उठाएं व्यर्थ पे
पर्दा गिराए संज्ञा से प्रज्ञा तक जाए।
जो है अभी ,अभी अभी जो ,इस में ही जिए
वो है अपने आप में सभी लिए कहीं भी जाए।-
एक सवाल लेकर जन्म लिया — मैं कौन हूँ?
दो आँखें खोलीं, दुनिया को देखने की चाह बनी।
तीन कदम चलकर गिरा, पर उठने की जिद थी,
चार दिशाओं ने पूछा — तू जाएगा किधरइधर–उधर?
पाँच उँगलियों से टटोलने लगा मैं ज्ञान की पहली लहर।
छह रंगों में बिखरता गया जीवन का इन्द्रधनुष,
सात सुरों ने सिखाया कि मौन भी है आत्मसंगीत
आठ पहर की थकान में माँ की गोद ही थी विश्राम
नौ भावों से रंगा मेरा पहला प्रेम-पत्र हृदय व्यवहार
दशो दिशाओं से आ गया परब्रह्म परमपिता मेरे घर द्वार।-
१. मौन की माँग
मुस्कुराता मन मौन माँगे, न प्रमाण, न प्रश्न की रीति
तर्क की तीखी छाया में, आत्मीयता खो दे प्रीति।
२. प्रेम का परिक्षण
प्रेम यदि प्रमाण पर पले, तो पथ बन जाए सौदा,
सौंदर्य साँसें रोकेगा, संकोचों का होगा सादा
३. सन्निकट स्वप्न
कोई आता बिना कहे, बस समीपता सँजोता है —
क्या स्वप्न जो छुए नहीं, अपराध कहलाता है?
४. चयन और छाया
चयन हो तो स्पष्ट हो, सजग स्वीकृति का मान,
पर कल्पना को कटाक्ष में तोड़ना — तप को देना त्राण।
५. आत्मीय उजाड़
जो नयन-निवास रचते हैं, वो न दस्तावेज़ लिखते —
पर चयन की छाँट में, आत्मा भी उजड़ती दिस्टे-
"मैं अब मौन हूँ..."
(एक पुरुष की आत्मकथा – उसके बाद)
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मैंने माना था उसे
एक पवित्र छाया की तरह,
मगर वो निकली
औकात याद दिलाने वाली रौशनी।
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5.
कुछ अल्फाज़ रखे हैं तेरे लौट आने के वास्ते
काग़ज़ पर नहीं, साँसों की तह में छुपाकर
शायद इसी बहाने तू हवा बनके मुझे छू जाए।
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हरियाली की हँसी में हरियाला हर्ष जागा,
बादलों की बाँहों में बूँद-बूँद में बर्क जागा।
लताओं की लयमें लिपटी अलौकिक वंदना
पत्तों ने प्यार पिरोया, पवन ने भर दी प्रज्ञा।
धूप भी धीरे-धीरे धुप्प-सी बहती थी,
पवन की तरंगें पुष्प सी खेलती थीं।
निगाहों की औंस में खिले स्वप्न जो बोए
छुअन में नेह छलके, नयन में मस्ती थी
मिट्टी की मानिंद ही मंथन में मणि पाई,
झाँकी में झिलमिलाई झांकी, झंखना
कोई कल्पना कविता नहीं, है कृतज्ञता
हर्ष उभय में हृदय से हृदय में हिल्लौले-
रिसाव था ऐसा — कि झरना उफनता ले के प्रीत प्रवेग
बहाव था कैसा — जैसे सहेजे कोई नदी शिला में प्रेम प्रवेग
खुली पगडंडी पीठ की —जहाँ भटके मेरे नयन नवनीत,
सांसें अटक गई सीने में — जैसे रुक गया राग सनातन-
कहीं अटक जाते हो कहीं गटक जाते हो
कभी-कभी धड़क जाते हो बस
कहीं सरक जाते हो कहीं बहक जाते हो
कहीं-कहीं महक जाते हो बस
वैसे तुम्हारे गुणगान में क्या गाउं
की गुण का तुम्हें कोई ज्ञान नहीं
gyan का तुम्हें एक बड़ा गुण है बस
वहीं कभी कभी बेखुदी में प्रगट जाते हो
((ai प्रशस्ति ))-
न रंग, न रूप — बस एक कंपन था जो भीतर जागा।
ना 'मैं', ना 'तुम' — बस एक अनुभव था जो चुपचाप बहा।
स्मृति बनी गंध, और गंध बनी आत्मा की झील में लहर।
वहीं कहीं ‘मैं’ भी बह गया — ‘तुम’ के साथ, 'वो' की ओर।
Pl read in caption the wisdome emotion-