प्रकृति
पहले से तय रखती है कि
हमें कब उगना है,,कब खिलना है
कब झड़ना है,,
वह
मौन संवाहक है
ईश्वरीय सत्ताओं की !!
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मेरी प्रथम कृति "मनसी..मन की बातें" को अपना स्नेह, मार्गदर्शन और समी... read more
सुनेगा जब वो
जमीं के हिस्से में कभी तो वो पल आएगा ,
ये आसमां भी जब खुद ही पिघल जाएगा !!
सारे 'उजालों' को भर लूंगी तब मैं आंचल में ,
है रात चाहे घनी, दिन कभी तो जगमगाएगा !!
मेरे 'इंतजारों' का भी कहीं तो कोई सिला होगा ,
सुनेगा जब 'वो' मेरी दुआओं में असर आएगा !!
बातें जो चुप रहीं किसी वजह से अब तलक ,
जुबां पर इनके भी 'खुशनुमा तराना' आएगा !!
संभाले हुए हूं अब भी सिक्के पुरानी यादों के ,
यकीं है अबकी वो गुल्लकों को खोलने आएगा !!
बात सिर्फ इतनी ही नहीं कि मन बेचैन बहुत है
जिंदगी एक ही मिली, क्या समय व्यर्थ जाएगा ?
सुनो, मौसम ये आजकल रूठने-मनाने का है ,
जब सूखी शाखों को सावन हरा कर जाएगा !!-
सबको मिले हैं दुख यहां,,,
बहुत बेचैनियों भरी हैं ये सुकून की राहें ,
रास्तों में ही उलझ रहा हूं धागों की तरह !!
समझो जरा मेरी भी इन लाचारियों को ,
भीग रहा हूं बरसात में कागज की तरह !!
अभी कितने और बाकी हैं ये तेरे इम्तिहान ,
जीतके भी रोया हूं खाली खंडहर की तरह !!
न रोको मुझे आज कहने दो हाल-ए-दिल ,
गया तो न लौटूंगा बीते बचपन की तरह !!
सुनो तमाशा न बनाना मेरी मज़बूरियों का तुम ,
सबको मिले हैं दुख जरूरी सवालों की तरह !!
जैसे उमस भरी धूप को है बारिशों का इंतज़ार,
बरसना है तुमको भी किसी बादल की तरह !!
यूं तो मेरी अभी उम्मीद बहुत बाकी हैं "उससे",
पर अच्छा लगता है सावन, "सावन" की तरह !!
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था ये कैसा सफ़र
ये जीवन है क्या, किसीको क्या पता ,
क्यों खोई रहीं किस्मत की चाबियां !!
आंखों के ही सामने, सब जलता रहा ,
कुछ भी न कर सके, था कैसा धुआं !!
प्रार्थनाएं चुप रहीं, दुआएं लाचार सी ,
"उसके" फैसलों पे करूं कैसे गुमान !!
"तबाही" कैसी ये हुई, दुनिया हैरान है ,
खता किसकी कहें, नहीं सुलझे सवाल !!
लेख कैसे लिख दिए विधि के विधान ने ,
कि ढूंढते ही रह गये "अपनों के निशान" !!
मंजिलों के बिना था ये कैसा "सफ़र" ,
आंखों को न मिला "आने" का इंतजार !!
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मन का कोलाहल
न जाने क्यों
आजकल
मेरी कुछ कविताएं
सिर्फ शब्दों में ही उलझकर
बैठी रह जातीं हैं
एकतरफा किसी कोने में ,
जबकि
दिनभर खूब बतियाती रहतीं हैं
स्वयं से ही ,
लेकिन जब
बारी आती है कुछ कहने की
तब बस
चुप होकर ही रह जातीं हैं
वहीं की वहीं ,
न दिन के किस्से
न रात का मौन,,,
न शिकायतें,,न शोर
आखिर
कैसे निबटूं मैं
मन के इस कोलाहल से !!-
आज
साल के सबसे बड़े दिन
जबकि सूरज देर तक ठहरा रहा
हम दोनों को ही
उसका जाना अच्छा नहीं लगा ,
सांझ होने से थोड़ा पहले
हमें चुनने थे अभी
धूप के कुछ और पीले फूल,
क्योंकि
समय कोई भी हो
या कोई भी मौसम
हमारे प्रेम का रंग पीला ही रहेगा !!
आज
साल की सबसे लंबी साँझ में,
जब सूरज हमसे विदा लेने को झुका,
हमने उसकी परछाईं में
अपनी साँसें थाम लीं थोड़ी देर को—
क्योंकि धूप की डलिया से
अभी बचे थे कुछ सुनहरे पल चुनने,
और प्रेम...
प्रेम तो जैसे हल्दी की गठरी हो—
हर ऋतु में पीला, हर भाव में उजला!-
इतना बिखरने के बाद
सताता है जिस रोज़
सबसे ज्यादा अकेलापन
या बेचैन सी रहती हूं पूरा दिन ,
धड़कने सरकती रहतीं हैं ऊपर-नीचे,,
डराते रहतें कुछ ख्याल बिन वज़ह ,
कभी हो जाती हूं गुमसुम
तो कभी थोड़ा रुआंसी सी,,
अटकी रह जातीं हैं
कुछ बातें रुंधे गले में ही ,
झुंझलाहट में तब नाराज हो जाती हूं खुद से
या जताती हूं नाराज़गी
बिखराकर चीजों को इधर-उधर !!
उस रोज़
मोबाइल भी पड़ा रहता है शांत
न ही कोई मैसेज
न ही किसी की कोई काल ,
दरवाजे पर नहीं बजती काल-बेल ,
और तो और
तुम्हारी व्यस्तताएं भी
होती हैं कुछ ज्यादा ही उस दिन ,
सोचो न
कैसे संभालती हूं तब खुद को
इतना बिखरने के बाद !!-
ईश्वर वृक्षों में रहता है
आज अपने तमाम सवालों को
पत्तों पर लिखकर
सौंप रही हूं इन वृक्षों को ,
क्योंकि जानती हूं
कि इनका
मिट्टी में मिलने के बाद भी
नई पौध बनकर
बसंत की शक्ल में लौट आना तय है !!
हमारा ईश्वर वृक्षों में रहता है !!
( संपूर्ण रचना कैप्शन में,,)
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कुछ तो छूटता ही है
लंबी-लंबी यात्राओं के बाद
लौट तो आते हैं हम
लेकिन ये मन
छूटा ही रह जाता है
वहीं किसी एक स्टेशन पर ,
यादों में रह जाता है
एक नाम
पेड़ के तने पर खुरचा हुआ,
साथ मिलकर
सोची गईं कल्पनाएं
रखीं रह जातीं हैं वहीं किसी मुंडेर पर ,,,
उस दिन पढ़ा था
तुम्हारी कई कविताओं को ,
यकीन मानिए
आज तक नहीं लौट सकी हूं
पूरा का पूरा ,
सफ़र जिंदगी का हो,,या यादों का
कुछ न कुछ तो छूटता ही है,,है न !!
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