मैने खुद को लिखा है सौ दफा मगर बयान करने से घबराता हूं,
नज़रे ठेरती तो है मगर मन की दौड़ से घबराता हूं,
सुकून में जो रहती है ये सांसे मुझमें इन्हे भी अब कुछ कहने से घबराता हूं,
सत्य की भाषा सुनाई तो पड़ती है मगर अब पढ़ने से घबराता हूं,
प्रेम पाने की ऊंचाई भी समझी है मैंने मगर घर छोड़ने से घबराता हूं,
चांद सी खूबसूरती भी देखी है मगर मैं अपने ही साय से घबराता हूं,
कितने वर्षों तक संवारा है खुद को इस दर्पण में मैने मगर खुद को ही देखने से घबराता हूं,
मैने खुद को लिखा है सौ दफा मगर बयान करने से घबराता हूं ।।-
@mkquotes1
कभी कभी लगता है के मैं सब से दूर आया हूं,
मां का घर और पिता का शहर छोड़ आया हूं,
बड़े भाई के कुछ पैसे और बहन से लड़ाई छोड़ आया हूं,
राज़ जो दबे दबे मेरी जेबों से झांकते होंगे वह भी एक अलमारी में कही मोड़ आया हूं,
जो तस्वीरे लेकर चला था मन में वह एक जमींदार के घर पर गिरवी रख आया हूं,
कृष्ण की बांसुरी और मीरा के भजन भी सुबह मंदिर में ही भूल आया हूं,
मित्र से कई वादे और अपनी सारी परेशानियां भी तोल आया हूं,
एक काली रात्रि का संगम जो टूटेगा चांद से वह सुबह भी देखने में कितनी दूर आया हूं,
कभी कभी लगता है के मैं सब से कितनी दूर आया हूं ।।-
क्या ही इन पलों से बेहतर है और क्या ही बेगाना,
मैं तुम्हे लिख रहा हूं और फिर मैं खुद से ही अनजाना,
अपनों से कुछ शिकायते हैं और खुद से नाराज़गी,पर तेरे इन लम्हों में उन्हें क्या लाना,
कुछ संजों कर रखा है तुम्हारे लिए पर पहले कुछ तुम अपना बताना,
अभी बस अभी छलका है पानी इन आंखों से,
इन्हे पौछना मत बस कुछ मोती तुम्हारे नाम के भी बन जाने देना,
धागा लाया हूं साथ में चाहें बांध लेना या डोर बन कर उड़ जाना,बड़ी उलझी कहानी है तुम्हारी पर तुम अपने ह्रदय की तरह संभल जाना,
मैं कुछ ख्वाब लाया था अब उन्हें रहने देना,
क्या ही इन पलों से बेहतर होगा और क्या ही बेगाना,
मैं तुम्हे लिख रहा हूं और खुद से ही अनजाना।।-
ये किन परिभाषाओं के आंगन में जन्मा है अहम् मेरा ,
फिर सारी अभिलाषाओं का दुश्मन भी है अधर्म मेरा,
काली रात्रि के स्वप्न में जो प्रभु का चिंतन न हुआ,
तो फिर कैसी मिट्टी में जन्मा है ये अहम् मेरा,
कर्मों के उधार का जो भुक्तान मांगा है इस जीवन ने मेरे अगर लोभ करे संसार का,
तो फिर किस प्रकार की कलम में जन्मा है ये अहम् मेरा,
जो पालने से पालनहार के सफर में भी डगमगा जाए,
फिर कैसे शरीर में जन्मा है ये अहम् मेरा,
हर गुण, हर ज्ञान को जो श्रेष्ठ मानता है ये चित्त मेरा
अगर अपने ही बनाए दलदल में धस जाए,
तो फिर कैसे मन में जन्मा है ये अहम् मेरा,
प्रेम की भाषा से जो समस्त चेतन सृष्टि जन्मी है
अगर वह भी सिर्फ स्त्री,पुरुष तक सीमित रह जाए
तो फिर किस हृदय में जन्मा है ये अहम् मेरा,
काली रात्रि के स्वप्न में भी जो प्रभु का चिंतन न हुआ,
तो फिर कैसी मिट्टी में जन्मा है ये अहम् मेरा।।
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ये घटित भोर सा बोध विचार,ये स्थूल मन का कठिन व्यवहार,
ये हरि नाम का गीत सवार,ये हृदय मोहित एक शिष्टाचार,
ये कर्म फल का कृत्य भार,ये दुर्लभ प्रेम का साक्षात्कार,
ये चर्म, चित्त का शोषण सार,ये भगवत रहस्य का विमुख सवाल,
ये घोर अन्याय सा समाचार,ये कलह मूढ़ता का अधर्म आचार,
फिर सर्व जीवन का स्वयं पर भार,ये भक्त कैसे ढूंढे हरि का द्वार,
सांझ गहरी और चोटें हज़ार बस एक तेरी नाव का है इंतजार ।।
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माता पिता से एक सौन्दर्य आकार लेकर ये मिट्टी कुछ समझने आया है,
समाज के हर खेल में जीतकर आज फिर कुछ तेल संजो कर लाया है,
गुरू के जन्मे तेज़ से स्वयं में एक ज्योति मंत्र जगाया है,
प्रेम की हवाओं से जीवंत होकर ये जीवन एक दिव्य दीप बनाने आया है ।।-
शब्द सब मौन है अभी और नज़रों ने ठहराव पा लिया है
इस हृदय ने अब तेरे हर कदम को उड़ान बना लिया है,
पागल एक पंछी ने न जाने कब ये समां खुद से बेहतर बना लिया है।।-
ये रातें जो शन्य से बीती जा रही है जीवन की,
थोड़ा और इस हृदय को अब शान्त बनाती है,
महत्वाकांक्षाओं के ढर्रों का जो श्रृंगार सजाया था समाज ने,
वह भी अब थोड़ा प्रेम की बौछार से धुलने लगा है,
अहंकार की भूख और लालच ने जो पकवान बनाए थे,
अब थोड़े थोड़े वह भी निडरता और समर्पण से फीके लगने लगे है,
आकर्षण, कामुकता और ईर्ष्या ने जो कई रंग वस्त्र पहने थे,
अब वह भी सत्यता और करुणा से श्वेत और सांवले प्रतीत होने लगे है,
स्त्री, पुरुष और न जाने कितने तरह के लिंग वह भेदों को जो किसी मूढ़ता ने कभी हमे परोसा था,
अब वह भी उस आत्मिक बल और एकता से छूटने लगे है,
हर दर्द और व्याधि का समाधान जो उस परमशक्ति से ही जन्मता है,
वही उस रात्रि का भी सृजनकर्ता है
जो हर पल इस जीवन को और गहरा और हृदय को और शांत वह सुंदर बनाती है ।।
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हर समाज में गढ़ी कहानी से खूबसूरत है वो आँखें तुम्हारी जो सच्चे आंसु छलकाती हों,
खुद के साथ चले ना चले ये ज़माना पर हमारे हर एक कदम को तुम बहुत बेहतर बनाती हो,
सुबह के सूरज से शाम की चांदनी अगर मुख छुपाए भी तो तुम हर रंग को हमारे नज़र की सियहि लगाती हो,
हर पल, हर क्षण ये जो धागा किसी ने बांधा था उसका बोझ भी कितना सरल बनाती हो,
कभी वक्त नहीं तो कभी खुद से हताश पर हर वृत्ति के मूल को तुम खूब संभालती हो,
मैं से मैं का जो नाता है कोई उसके सार को भी तुम हम सा बनाती हो,
हर समाज में गढ़ी कहानी से खूबसूरत है वो आँखें तुम्हारी जो सच्चे आंसु छलकाती हों ।।
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हर दुख का है निवारण जो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर संगीत से बेहतर जिसका गीत हो मुझे वह कृष्ण चाहिएं,
हर राग में जिसका प्रेम अनंत हो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर हृदय में जिसका बसेरा हो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर सफर में जिसका साया हो मुझे वह कृष्ण चाहिएं,
हर चंचलता में जिसके धर्म बसा हो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर दर्पण में जिसके संपूर्ण सत्य हो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर कण में जिसके मंत्र गढ़ा हो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर नृत्य में जिसके भक्ति समाई हो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
हर संगीत से बेहतर जिसका गीत हो मुझे वह कृष्ण चाहिएं,
हर दुख का है निवारण जो मुझे वह कृष्ण चाहिए,
मुझे बस कृष्ण कृष्ण और कृष्ण चाहिएं,और नहीं मिले अगर कुछ मुझे तो वह भी कृष्ण से चाहिएं।।
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