ज़िंदगी ने ज़िंदगी बनने को ,
कितनी जिंदगियाँ ली होगी..?
कितना मुश्किल होगा...
बिना मौत से मिले ,
तमाम जिंदगी जी लेना..
क्या ज़िंदगी ,ज़िंदगी भर साथ निभा पाती है?
या मर जाते हैं लोग जीवन ख़त्म होने से पहले?
ढाँचे को ढोती है तमाम दुनियादारी..
फ़िर मर जाती है दुनियादारी
उस ढाँचे को ढोते ढोते...-
काक ने माँगी मयंक से ,उधार चंद चाँदनी..
जलती बाती नीलगिरी की, ढाँक रक्खी एक दीयनी...
सुरमयी सी शाम बटोरे ,सुरमा काली रात से ..
सात तारों का कजरौटा,माँग लाई कायनात से...
अब हथेलियों में संजोए, एक ओर दीप्ति चमचमाती ..
अपने प्रकाशमान हिय के ,भीतर काजल को बचाती ..
इक अनामिका भर अंजन से, मुख पर एक चाँद उगाई..
बलाएँ लेती चंद्र बिंदी ,तब उस चाँद को लगाई ...
चाँद चाँदनी सूरज दीप्ति ,जगमगाते रखे छिपाये..
स्याह तम की स्याह-छाया से ,स्याह सुरमा इन्हें बचाये ....-
मुद्दतों में मिला तो एक पल मिला हमें ...
यारी को मिला भी तो "कल" मिला हमें ...-
साँकल दर को खटखटाती... ना जाने किसको बुलाती ..
खूँट चढ़ी कर बंद किवाड़
कैसे कर पाती चौखट पार
ख़ुद की रज़ा में क़ैद ख़ुद ही
आख़िर क्यूँ फिर छटपटाती..
साँकल दर को खटखटाती...ना जाने किसको बुलाती...
साँकल चढ़ी वो एक किवाड़
परदेसी ख़ातिर बनी दीवार
भीतर से भीतर आव्हान कर,
मुझे बुलाते तिलमिलाती....
साँकल दर को खटखटाती
हर पल बस यह मुझे बुलाती ....
-
मन का मरघट ..
नज़रबंद चौखट..
राज़ चीखते रह जाते हैं ...
चिल्लाता है मौन ..
सुनता है कौन ..
सब बस कहते रह जाते हैं ...-
एक ज्योत जीवन भर की ...
उसपे प्यास आचमन की ...
ये नहीं तो वो सही ।।।-
नैन मूँद लेने भर से ..बहरा हुआ मैं...
"मूक" होने में अब ,वक्त ज्यादा लगेगा ...-
अलग बनने की चाह नहीं, सबसा बनना चाहते हैं।
बराबरी पर बहस नहीं साझा हर जिम्मा चाहते हैं ।।
तुम अकेले मत जोड़ना पैसे, हर मजबूर पिता के जैसे ।
माँ की जुटाई हिम्मत से, एक पहाड़ बनाना चाहते हैं।। बराबरी...
फक्र जिन्हें तुम कहते आए, न व्यर्थ कहीं तुम शीश नेवाए।
बेटाबेटी से परे हैं हम बस संतान बताना चाहते हैं।। बराबरी...
दुनिया देगी तुमको ताने, पर धकोसले हमने कब माने।
उन बाणों का पतवार बना, नव संसार चलाना चाहते हैं ।। बराबरी...
हम चार दिशा है चार पहर,न कुंठित आँखें होंगी तर।
तुम्हारी परिवर्तन की फूँक से अब सैलाब ले आना चाहते हैं।।
बराबरी पर बहस नहीं. साझा हर जिम्मा चाहते हैं।।.-
बाबा की वसीयत का एक हिस्सा ..
सबकी आँखों से बचता हुआ...
मेरी कलम में आ गिरा
हथिया लिया मैंने चुपचाप ..
बिना किसी से कहे ..
बस लिख लिख कर...
कहती रही, बाँचती रही ,बचाती रही ..
बाबा का लेखन रूपी वसीयत का वो हिस्सा ...
अब बाबा की चिट्ठी के अलावा ,
मेरी डायरी के भंडार ...
बंद किए हुए हैं ,
छुपाये हुए हैं,
वो हिस्सा ..
जिनका कभी न हुआ ,
ना होगा कोई हिसाब...-
मैं फलक राग की रागिनी ..जो गाओ तो बनूँ संगीत ।
बाँसुरी के तान से छूटी ..वीणा के तारों में टूटी ..
आरोह बन आकाश चढ़ी ..
अवरोह गिरी पूरा कर गीत ।
मैं फलक राग की रागिनी..जो गाओ तो बनूँ संगीत ।।
कंठ की सीढ़ी मेरा वास ..तल्लीन हो जो चढ़ी हो श्वांस ..
कानों मे मिश्रित कर के मिश्री..
बना जो स्वर ही मेरा मीत।
मैं फलक राग की रागिनी..जो गाओ तो बनूँ संगीत ।।
व्यंजन के व्यंजन की चटोरी ..मीठे शब्दों की प्यास भी थोड़ी..
अलंकार की तश्तरी में ..
परोसे अद्भुत आहार ख़लीत।
मैं फलक राग की रागिनी..जो गाओ तो बनूँ संगीत।।
फलक की ही हूँ बुनावट...राग चाँदनी की सजावट...
तारों की परछाईं जुगनू...झींगुर के सुर की हूँ आहट..
चाँद का सरगम तारें गाएँ ..सूरज के सप्तक किरणें लाएँ ..
आकाश फैली आकाशगंगा ...सब मिल कर गायें सुर नवनीत ..
मैं फलक राग की रागिनी..हूँ वही राग..हूँ वही संगीत ...!!-