लकीर खींची वरक़ पे वतन अलग हो गये
कि दीन के लिए हम फ़ितरतन अलग हो गये
नहीं रही कभी पहले सी बात रिश्ते में
अलग-अलग हुए दोनों तो मन अलग हो गये
कुछ एक लोग थे घर के कुछ एक बाहरी भी
हमारा लूट के सब, राहज़न अलग हो गये
चनाब , सिंधु से रावी या व्यास से झेलम
सियासी झगड़े में भाई-बहन अलग हो गये
वही ज़बान वो ही ज़ाइक़ा है लोग वही
तो ऐसा क्या हुआ जो हम-सुख़न अलग हो गये
तो क्या हुआ जो तिरे फूलों पे नहीं रहा हक़
ये ख़ुशबू सांझी है बेशक चमन अलग हो गये
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