लहू 🩸 के रंग में डूबा हुआ वतन निकला,
जिस्म से जान से वतन, वतन निकला.
क़सम खुदा की मेरी कब्र जब भी खोदी गयी,
मेरी कब्र से तिरंगा 🇮🇳 मेरा कफ़न निकला-
हम तुमसे जो कहते थे,
बातें सारी सच कहते थे,
पर तुम ही हमें भरमाते थे,
झूठा आईना दिखाते थे.-
कितनी बारिशों की गवाही लेनी है.
सूखे पत्तों से कब तक सबाही लेनी है.
अब जाने दो इन्हें अब ये डाल के लिए भारी हैं
पतझड़ की भी तो अब इन्हें मुक्त करने की तैयारी है.-
अर्थ नहीं जिस जीवन का,
उस जीवन का क्या अर्थ सखे ?
अर्थ नहीं जिसके जीवन में,
उसका जीवन है व्यर्थ सखे.
इस अर्थ अर्थ के चक्कर में,
हो के निरर्थक मैं झूल रहा.
अब तुम ही मुझे बतलाओ जरा,
किस हेतु करूँ मैं ख़ुद को खर्च सखे.
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सजदा तो,
उनकी ख़ामोशियों को था,
लब खोल के,
वो सच में ग़ज़ब कर बैठे.
देख के ये,
खुदाई करिश्मा हम बंदे ,
इसे बंदगी का,
हासिल असर मान बैठे.
सुर्ख़ गुलों से,
भरा था दामन उनका ,
सहेजने में जिसे,
हम इक उम्र गुज़ार बैठे.
ख़ाक डालें,
कैसे कफ़न पे अब उनके,
यही सोच कितनी,
सुबहों को शाम कर बैठे.
आज तक यह,
समझ नहीं आता कैसे ?
उनकी रूह को,
आख़िरी सलाम कर बैठे.-
वो चला गया पर फ़र्क़,
आख़िर किस पर पड़ा उसके जाने से…
हाँ अगर होता,
तो ज़रूर फ़र्क़ पड़ता…
यानी,
जरूरी है होना और डटे रहना,
अपनी आख़िरी साँस तक.
पलायन न कभी विकल्प हो सका है,
और न ही कभी विकल्प होगा…-
हमारे लिए,
जिंदगी का,
जो व्यवहार है.
महज़ रक्त,
अस्थि और मज्जा का,
जीवंत उधार है.-
कौन नगर से तुम निकले थे ?
कौन शहर तुम्हें जाना था ?
पथ पे दावा कैसे किया भई ?
क्या सारे पथिकों को तुमने पहचाना था ?-