गुंजते शहर के अंधेर उजालो में गुमनाम जीना भी आसान कहां काफिरों के शहर आज़ादी कहां जो चाहिए तुम्हें अब वो मंजर कहा शायद नसीब ही नहीं मुकद्दर में अंजाम तुम्हारे फिर क्या ढूँढते हो तुम इन बाज़ारों में
दो बाते जो रह गई अधूरी उसको अंजाम देना हम मिले या ना मिले तुम खुदको वो मुकाम देना जब भी बात छिड़े हमारी मुस्कराकर मेरा नाम लेना ओर कुछ भी नही है रज़ा मेरी जब भी मिले कहीं किसी मोड़ पर तुम बस मुझको पहचान लेना
जब बात तुम्हारी होती है किस तर्क से वितर्क कर बेठे हे हम यह सोच समीप जब खोती है रूझान तेरी बोली का तट पर जेसे मोती है में लिखने को तो लिख बेठू किरदार तेरा, संसार के हर चप्पे पर पर अंत है हर बात का केवल एक ही