मुंडा ज़ेहर वर्गा   (MundaZaharWarga)
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Joined 19 January 2019


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Joined 19 January 2019

गुंजते शहर के अंधेर उजालो में
गुमनाम जीना भी आसान कहां
काफिरों के शहर आज़ादी कहां
जो चाहिए तुम्हें अब वो मंजर कहा
शायद नसीब ही नहीं मुकद्दर में अंजाम तुम्हारे
फिर क्या ढूँढते हो तुम इन बाज़ारों में

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मेरी ख़ामोशी
फिर जान नही सकते
क्यों, तुम मेरे जज़्बात सभी

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के‌ तुमको जी भर के
तकना भी अभी बाकी था

तुम हो गए क्यूं कफा इस कदर
के तुम्हारे सिवा और कौन
मेरा साथी था

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पास,
हद से बढ़कर
ना रोक सका में खुदको
बढ़े एहसास जब
ह्रदयभर
जा मिटे सब लोग समाजी
जिन पर था हूर नूर का अदब
रीझकर

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कोई तुमसा जो अजीज़ हो
नहीं मिलता
कोई तुमसा जो समझे मुझे
नहीं मिलता
कोई तुमसा जो सिर्फ मेरा हो
नहीं मिलता
कोई तुमसा जो दिल के करीब हो

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यह अंजान डगर
ना जाने क्यों हम
चलते राह में, नादान!
लिए गिरने का डर
कोई हो जो आकर थामलें
अब तो यह भी हैं
महज़ एक बात भर

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दो बाते जो रह गई अधूरी
उसको अंजाम देना
हम मिले या ना मिले
तुम खुदको वो मुकाम देना
जब भी बात छिड़े हमारी
मुस्कराकर मेरा नाम लेना
ओर कुछ भी नही है रज़ा मेरी
जब भी मिले कहीं किसी मोड़ पर
तुम बस मुझको पहचान लेना

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ना कभी छोड़कर मेरी ज़मी
तुम अपना आसमान चुनोगे

जहां कहीं हो कदम मेरे
तुम सदा मेरे संग चलोगे

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जब बात तुम्हारी होती है
किस तर्क से वितर्क कर बेठे हे हम
यह सोच समीप जब खोती है
रूझान तेरी बोली का
तट पर जेसे मोती है
में लिखने को तो लिख बेठू
किरदार तेरा, संसार के हर चप्पे पर
पर अंत है हर बात का केवल एक ही

शब्द कम पड़ जाते जाते हैं
जब बात तुम्हारी होती है

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कौन हैं जो करीब न होकर भी
लगता जेसे फरिशता है
संजो कर रखना चाहते है हम जिसको
है कौन जो मुसाफिर राह का
जो संग सफर अब हमसफर अपना सा लगता है

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