मुकुंद शर्मा (गुरु जी)   (मुकुन्द राही✍️)
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Joined 18 June 2018


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Joined 18 June 2018

भटकते रहे दर बदर कोई अपना ना लगा,
ये दिल की तलाश तुझ पर आ कर मुकम्मल हुई...

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कुछ लम्हें और हमने तुझ संग गुजारे होते,
अपने लफ्ज़ तेरे होठों से लगा के संवारे होते,

कुछ जुगनू छोड़ जाया करते थे उम्मीद ए रौशनी में,
जब काम से लौटा करते तो तो आसमां में लाखों तारे होते.

चलो अच्छा है, तेरे इश्क़ में की है बर्बाद जवानी अपनी,
वरना वैसे भी ये दिन दुनिया की कैद में गुजारे होते,

अच्छा है सीख गए तैरना, लहरों के थपेड़े खा कर,
वरना हम भी उस दरिया के मारे होते,

तेरे एक फैसले ने मुझे मीलों दूर कर दिया है "राही"
वरना पास होते तुम, हम तुम्हारे होते ...


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बड़े बुजदिल है, हर एक बात पर डर जाया करते है।
ये मौत से डरने वाले भी इक दिन मर जाया करते है..

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अब वो बात नहीं है "राही" तुम्हारी कलम ही धार में,
शायद बिक चुका है दर्द भी, जिम्मेदारी के बाज़ार में.

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दर्द, तनहाई, रुसवाई और इंतज़ार,
सब कुछ देख लिया दिल ने, इक तेरा दीदार छोड़ कर।

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इतनी सूफियाना हो चुका है किरदार मेरा,
गर कोई पत्थर भी मिल जाए, इबादत कर लेता हूँ,
हर दफा सोचता हूं, उसे कोई बद्दुआ दे दूं,
पर जब जब उसे देखता हूं, फिर मुहब्बत कर लेता हूँ!

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इक अरसे से जिंदगी मशरूफ है, मलबा हटाते हटाते,
मेरे इश्क़ की इक बड़ी ईमारत जमींदोज हो गई।

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तेरे होने पर भी हालत नहीं सुधरेंगे मेरे,
तेरा ना होना कुछ इस कदर तोड़ गया है मुझे...

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इक अरसे तक चल रही थी तन्हाई की शीतलहर,
और फिर तुम आई, माघ की सुनहरी धूप जैसी..

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इक नया अंदाज़ ज़माने को सिखाने निकला है,
वो मेरे अंधेरों को अंधेरे से मिटाने निकला है।

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