Mukulratnawat   (Tina Mukul)
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लिखा जो भी कलम से
जिंदगी ने बयां किया।
Joined 19 March 2020


लिखा जो भी कलम से
जिंदगी ने बयां किया।
Joined 19 March 2020
4 HOURS AGO

मैं जागृत हूं पुरातन से बंधी नहीं,
मैं मान भी जाऊं अगर कोई बिना दुराग्रह के सुनने वाला हो ।
वक्त को अगर थाम पाऊं तो शायद पलकें भी न झपकाऊं!

तुम बिन आई पर अफ़सोस कैसे जताओगे?
अंधे हो अंधे ही कहलाओगे!
ये चिकनी चुपड़ी मुझे कहना आता नहीं,
पतन की ओर हो मिट्टी में मिल जाओगे।

ये शान- ओ - शौकत, दुर्ग, किले ये आडंबर की जो दीवारें हैं,
इन्हीं के बीच दबे रह जाओगे!
देवियों की लाशों पर कैसे घर बनाओगे,
बलि देनी होगी अहंकार की तभी शांति पाओगे।

माना बदलाव कठिन है, पर कभी कोशिश भी की है?
कब तक खुद को रीति रिवाज़ में जकड़कर जी पाओगे?
कौम को बचाना है तो सुधार लाओ,
कब तक नए खून को भी उसी ढर्रे पर चलाओगे...!

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5 HOURS AGO

तुम मेरे जीवन का विष हर लो,
तुम्हारी परीक्षा न जाने कितने बवंडर ले आई।
देखो भोले या तुम मुझमें साहस भर दो या मुक्त कर दो,
ये अड़ जाना या लड़ जाना कुछ ज़्यादा हो गया;
इतनी कठिनाइयां मेरे लिए ही क्यों लिख दी?
मैं भीख मांगती हूं मुझसे और उम्मीद न करो,
मेरी आशा निराशा में तब्दील है हौसले निरस्त और पस्त हैं।
ये अन्तर्द्वंद कभी खत्म नहीं होता,
तुम ही साथी बनो इस जर्जरता से मेरा जीर्णोद्धार करो!

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7 JUN AT 1:57

जपूतानी थी, लेकिन ज़िंदा थी"

(By Tina Mukul)

राजपूतानी थी, लेकिन ज़िंदा थी,
भाग्य के भरोसे जल नहीं रही थी।
बोझ की तरह पैदा हुई, मगर बोझ नहीं थी,
सपनों की उड़ान — उसने खुद बनाई थी।

गहनों में खुद को जकड़ने नहीं दिया था,
साँस रुक-रुक के ही सही, पर ली थी।
वक़्त में खुद को कोहरे-सा गुम नहीं होने दिया,
आग थी वो — लेकिन सब कुछ राख नहीं किया।

जो जला — वो थीं झूठी मक्कारियाँ,
वो दागदार ‘इज़्ज़त’ — जो औरत को तोड़ती है।
कभी समझ नहीं पाई उसका सलीक़े से रहना,
उसके परिवार से उसका संबंध क्या है।

उन्हों ने तो भेज दिया था उसे,
फिर वो चौकीदार क्यों बने रहे?

मैं रानी की वंशज सही,
मगर मुझमें भी खून है — खामोश नहीं।

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5 MAY AT 23:56

मेरे ना होने से।
अनहोनी को कौन गले से चिपकाया करता है,
तुम रहो आबाद होकर हमे बरबाद करके।
शिकन भी ना होगी तुम्हारे चेहरे पर,
अगर खुद को रिहा और तुम्हे आज़ाद कर दूं।
कोई ज़ख्म आज फिर खुल गया है,
उम्मीद सुई की नहीं खंजर की ही है तुमसे।
अब कुछ महसूस तो होता नही,
बस मजबूरी है यहां रहने की!

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27 APR AT 0:16

वो मुझे भूल जाना चाहते हैं,
मै भी उन्हें याद करना तो नही चाहती !
पराया कर भी परायों सा व्यवहार नहीं उनका,
उनसे बद्तर तो अपने ही पेश आया करते हैं।
काश कुछ होते हम भी तो फिर कहां फर्क पड़ता अपने परायों से,
जन्म देने से ना तो कोई अपना बनता है ना बेगाना;
उन्होंने सौंप तो दिया मुझे इन भेड़ियों के हाथ जो रोज मेरा एक स्वप्न खाया करते हैं।
नफ़रत है मुझे लहू की कीमत लगाने वाले सामाजिक ताने - बाने से।
मै असामाजिक ही सही,
नहीं चाहिए मुझे सुसंस्कृत होने का तमगा!

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27 APR AT 0:04

वक्त और हालात ऐसे हैं कि अब उल्फत पर भी मरने को जी नहीं चाहता है,
फिर भी रोज़ ख्वामखाह ही जान देने का ख्याल ज़रूर ज़हन में छाया रहता है!

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7 APR AT 22:48

I never wanted them but you.

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26 MAR AT 0:05

किस तरह छिपकर जलता है,
नहीं किसी को छलता है;
वक्त के हाथों बेबस होके सिर्फ रूप बदलता है!

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10 MAR AT 13:39

विद्योतमा को तो सदा मूर्ख ही मिले,
समाज ने जो मिलवाया था।
देख न पाया था उस स्त्री का घमंड,
आखिर कैसे उसने अपने ज्ञान को पाया था!
किया तिरस्कार फिर उस मूर्ख का जो स्वाभाविक ही था,
नारी द्वारा था इसलिए सहन न हुआ ;
तभी तो कालिदास बन पाया था,
स्त्री का अपने प्रति अन्याय को न सहना भी उद्दंडता माना गया!
क्या आशा रखोगे इस संसार से,
जिसने स्त्री की सही साथी की कामना को भी बस महत्वाकांक्षा ही समझ पाया था!


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22 FEB AT 21:30

Line said silence,
Ears bleed loudly,
Thoughts undermined chaos!

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