Mukulratnawat   (Tina Mukul)
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लिखा जो भी कलम से
जिंदगी ने बयां किया।
Joined 19 March 2020


लिखा जो भी कलम से
जिंदगी ने बयां किया।
Joined 19 March 2020
5 MAY AT 23:56

मेरे ना होने से।
अनहोनी को कौन गले से चिपकाया करता है,
तुम रहो आबाद होकर हमे बरबाद करके।
शिकन भी ना होगी तुम्हारे चेहरे पर,
अगर खुद को रिहा और तुम्हे आज़ाद कर दूं।
कोई ज़ख्म आज फिर खुल गया है,
उम्मीद सुई की नहीं खंजर की ही है तुमसे।
अब कुछ महसूस तो होता नही,
बस मजबूरी है यहां रहने की!

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27 APR AT 0:16

वो मुझे भूल जाना चाहते हैं,
मै भी उन्हें याद करना तो नही चाहती !
पराया कर भी परायों सा व्यवहार नहीं उनका,
उनसे बद्तर तो अपने ही पेश आया करते हैं।
काश कुछ होते हम भी तो फिर कहां फर्क पड़ता अपने परायों से,
जन्म देने से ना तो कोई अपना बनता है ना बेगाना;
उन्होंने सौंप तो दिया मुझे इन भेड़ियों के हाथ जो रोज मेरा एक स्वप्न खाया करते हैं।
नफ़रत है मुझे लहू की कीमत लगाने वाले सामाजिक ताने - बाने से।
मै असामाजिक ही सही,
नहीं चाहिए मुझे सुसंस्कृत होने का तमगा!

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27 APR AT 0:04

वक्त और हालात ऐसे हैं कि अब उल्फत पर भी मरने को जी नहीं चाहता है,
फिर भी रोज़ ख्वामखाह ही जान देने का ख्याल ज़रूर ज़हन में छाया रहता है!

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7 APR AT 22:48

I never wanted them but you.

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26 MAR AT 0:05

किस तरह छिपकर जलता है,
नहीं किसी को छलता है;
वक्त के हाथों बेबस होके सिर्फ रूप बदलता है!

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10 MAR AT 13:39

विद्योतमा को तो सदा मूर्ख ही मिले,
समाज ने जो मिलवाया था।
देख न पाया था उस स्त्री का घमंड,
आखिर कैसे उसने अपने ज्ञान को पाया था!
किया तिरस्कार फिर उस मूर्ख का जो स्वाभाविक ही था,
नारी द्वारा था इसलिए सहन न हुआ ;
तभी तो कालिदास बन पाया था,
स्त्री का अपने प्रति अन्याय को न सहना भी उद्दंडता माना गया!
क्या आशा रखोगे इस संसार से,
जिसने स्त्री की सही साथी की कामना को भी बस महत्वाकांक्षा ही समझ पाया था!


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22 FEB AT 21:30

Line said silence,
Ears bleed loudly,
Thoughts undermined chaos!

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22 FEB AT 20:56

जुदाई ज़रूरत भी आज के ज़माने की,
ताकि पता लगा सकें कौन कितना बेरूखी से पेश आ सकता है।
प्यार के थपेड़ों से अच्छा तो शांत मातम है उस रिश्ते का,
प्यार के अंधेपन से कुछ रोशनी चुराकर नए रास्ते पर चलने की तस्दीक करता है।
जुदाई को अगर कोई सह जाए,
तो जान लेगा कि वो आदमी उसका कभी था ही नहीं!

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17 FEB AT 11:35

दफ़न हुए वो सारे ख्वाब जो कभी आंखों में तैरा करते थे।

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23 DEC 2024 AT 23:38

शब्दों को पन्नों में छुपाना बंद करो,
तुम्हारा हर रूप देख चुकी हूं,
अब तो परवाह का दिखावा बंद करो।
तुमने जीवनसाथी के रूप में ही नर्क दर्शन करवाए हैं,
अब तो स्वर्गवास का उकसावा बंद करो।
मस्तिष्क को उलझाया है तुमने इस कदर;
कि अब फर्क पता नहीं चलता ख्वाब और हकीकत में।
तुमने मुझे इस तरह झकझोरा है कि मेरे सारे ख्वाब बिखर गए हैं
अब इन्हें संजोना मुझसे शायद दोबारा न हो पाए!

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