कैसे मुझको बोलते हो ,
अपने हो !
या अपने होने का ढोंग रचते हो ,
मैं हूं अनपढ़ और जाहिल ,
पता तो तुमको हैं ही ,
मुझको अच्छे से बतलाओं,
और प्रेम से समझाओं ,
शायद मैं भी समझ जाऊं ,
सुना हैं प्रेम की भाषा पशु - पक्षी भी समझ जाते हैं.....
@मुकुल
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GORAKHPUR , KUSHINAGAR
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यह दूरियां बढ़ाने से क्या हम दूर हो जायेंगे ?
गयाजी ना बुलाओगें तो क्या हम गैर हो जायेंगे ?
तेरे नहीं तेरे विरह का अजीज हूं मैं.....
तुझसे दूर हूं मगर तेरे दूरियों के करीब हूं ,
हमें ठुकरा दोगें तो क्या हम गैर के दर पर चले जायेंगे?
अरे ! नहीं नहीं नहीं...
तुम्हारे थें, तुम्हारे हैं, तुम्हारे होकर ही मर जायेंगे .....-
विरही की विरह दशा का कोई,
वर्णन कैसे कर सकता हैं ।
गुजर रही हैं जो उस पर ,
वह किससे कह सकता हैं ।
पीड़ाओं से भरा होगा ह्दय,
आंखों से आंसू आते होंगे ।
बोझिल होता होगा मन ,
वह उसे कैसे छुपाते होंगे .....
@मुकुल द्विवेदी
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वेदनाओं से थी पूरे बदन में अनेक पीड़ा ,
आशा थी एक तू ही साथ निभायेगी ,
थपकियां दे दे कर मुझे सुलायेंगी ,
तुम पर मेरी पीड़ा का कोई प्रभाव न पड़ा ,
तू छोड़ मुझे अकेला सो पड़ी ...
मैं देखता रहा तेरी डगर ,
रात , सुबह , दोपहर और शाम ...
ना कोई जबाब और ना कोई सुगबुगाहट .....
मैं हूं अकेला, तुझे कुछ है आहट .....-
आंसू बिना वजह के आ ही नहीं सकते ,
यह खुदगर्ज चीज ही ऐसी हैं ,
कभी खुशियों की अनुभूति पर और कभी विरह वेदना के सागर में.....-
पिता घर की छत होता हैं ,
उसका ना होना,
मन को झकझोर देता हैं ,
ह्रदय को तोड़ देता हैं ।।-