वतन
आजादी मिल गई मगर मज़हब और जाति के गुलाम आज भी है
उस खुदा के नाम पर ठगने वाले लुटेरों का काम आज भी है
और हिन्दुस्तान कहता है कि मैं आज़ाद हूँ
कैसे आज़ाद है, जब भ्रष्टाचार की काली कमाई का इन्तेज़ाम आज भी है
माँ की आँखों के आँसू की बूँदे भी चीख़ - चीख़ के रोती है
जब गंगा की जगह शराब की बोतल के हज़ारों ज़ाम आज भी है
सरहद पर खड़ा फौज़ी और खेतों में पसीना बहाने वाला किसान कही खो गए है इस मिट्टी में
क्योंकि पर्दे पर अपने ज़िस्म की नुमाईश करने वालों का नाम आज भी है
इश्क़ की अदाओं में डूब गए हिन्दुस्तान के कई आशिक़
वतन के नाम पर इश्क़ करने वाले ग़द्दार और नमक हराम आज भी है
वतन परस्ती एक जूनून है और सच्चा वतन परस्त एक फौज़ी
फिर भी तिरंगे के वतन परस्त पर कई इल्ज़ाम आज भी है
मादर -ए- वतन और माँ, जन्नत की हसीन वादियों से बढ़कर है
पर घर मे छुपे ग़द्दारों की वजह से तिरंगे का दाम आज भी है
शायद शहीदों की शहादत को याद करके मज़हब की दकियानूसी बातों को भूल गया हो ये वतन
वरना हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तानी के इन्तज़ार की शाम आज भी है-
पहले मैं झूठ बोलते वक़्त रूक सा जाता था या रूक - रूक कर बोलता था लेकिन अब मैं झूठ बोलना सीख चुका हूँ और अब मेरा सबसे बड़ा झूठ यही है के सच कहना मेरी फ़ितरत नहीं है, झूठ बोलना मेरी आदत नहीं है यानि सच की सच्चाई में और झूठ के आग़ोश में सिर्फ हद से हद तक झूठ ही झूठ बोलता हूँ और अब सच के साथ फ़रैब करने की बिलकुल भी हिम्मत नहीं है।
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बे-ग़म
कहाँ है आशिक़ी मेरी, मेरी बेहिसाब बरबादी है
जादू है या तिलिस्म मौहब्बत मेरी, मेरी ख़याली है
अब असल में मेरी हक़ीक़त मेरी नज़रों के सामने है
आग़-सी लपट है मिज़्ग़ाँ मेरी, मेरी हाज़िर-ज़वाबी है
काफ़िला तुझसे था, तुझसे ही है इस अंजुमन में
तेरी मुस्कान है अंजुमन मेरी, मेरी एक ही नख़रे-नवाबी है
इशक़ की आग में सुलगती दिल-लगी दोनों ओर से थी
इशक़ मुक़म्मल नहीं है ज़ानम मेरी, मेरी यही कहानी है
अब तेरा होना भी मेरे ख़्याल में नहीं है, न ही मेरी क़िस्मत में
तेरी इक मुस्कुराहट है मक़्दूर मेरी, मेरी अज़ीब - सी बे-ख़याली है
इशक़ किया मगर ऐसे कभी बर्बाद न हुए, सोचा भी न था
अब इशक़ तेरा है जन्नत मेरी, मेरी ऐसी ही ज़िन्दगानी है-
मेरा क्या हाल कर गए
दोस्ती की बात करते - करते कुछ अजीज़ अपने मफ़ाद पर कंगाल कर गए
जरूरत के वक़्त सड़कों की इन लावारिश गलियों में बेहाल कर गए
नफ़ा - नुकसान की नींव पर झूठी दोस्ती का आशियाना बनाकर
अज़ीब - सी क़श्मक़श में फंसाकर अज़ीब - सा सवाल कर गए
कभी कुछ - कभी कुछ कह - कह के मेरी साँसों को गिरवी रखके
सीने पर तेग़ से वार कर - कर के कागज की तरह हलाल कर गए
दिल के ख़ाली मकान में ख़ुद ही - ख़ुद की ज़ान, दिल-निहाद के जाने का ग़म
इस तन्हाई के आलम में यूं मर - मर के अकेला छोड़कर क़माल कर गए
समन्दर की लहरों की तरह तेरे निशां मिटा - मिटा के आगे बढ़ चला हूँ लेकिन
मरने के बाद मुझे यूँ तड़प - तड़प के मरने के लिए मेरा क्या हाल कर गए-
बस अब ख़तम
ज़ख़्मी हूँ, अब किसी के साथ की जरूरत नहीं है
अब मेरे अहल-ए-दिल को किसी की हसरत नहीं है
आजकल तेरे अल्फ़ाज़ ने मेरे दिल पर गहरे घाव किए है
ऐ मेरे हम-नफ़्स शायद अब तुझे मेरे प्यार की लत नहीं है
मैं तेरे इस झलकते हुए बालक जैसी आँखों पर फ़िदा था
अब मेरे नसीब में तेरी ये बालकपन जैसी हरक़त नहीं है
मैं फ़िज़ूल, मेरी बातें तेरे लिए फ़िज़ूलियत से भरी हुई है
अब मेरी बातों की तेरे लिए रत्तीभर भी अहमियत नहीं है
तेरी - मेरी औक़ात में मैं बेहिसाब बेईज़्ज़त हुआ हूँ
अब तेरी नज़र में मेरी कोई बेहिसाब ईज़्ज़त नहीं है
जा तुझे आज़ाद किया अपने हक़ से, अपने क़फ़स से
अब तुझे अपने ही महबस में क़ैद करने की हिम्मत नहीं है
वो बाद-ए-सबा कब वापस लौट कर आएगी मेरे पास
या अब इस ज़हन्नम के सिवा मेरी कोई ज़न्नत नहीं है-
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी भी अज़ीब क़ाशमक़श है, पुण्य - पाप का ही पता नहीं है। क्या गलत, क्या सही है, क्या पाप है, क्या पुण्य है?
अज़ीब क़शमक़श है ज़िन्दगी, गलत या पाप की चादर पर सिमटी हुई है ज़िन्दगी, तन्हाई के आलम में पाप करने का ग़ुनाह है ज़िन्दगी, पाप और गलत में फ़र्क का शराबखाना है ज़िन्दगी, ख़ास यार से दूर जाने का ग़म है ज़िन्दगी, मौहब्बत के दरमियान मज़हब / रिवाज़ों की दीवार है ज़िन्दगी, पैसे के बग़ैर लावारिश सी है ज़िन्दगी, हक़ीक़त की ज़िन्दा लाश है ज़िन्दगी, ज़रा सी मुलाक़ात में ग़मों की बरसात है ज़िन्दगी, मौत की आख़िरी रात है ज़िन्दगी, किसी अपने को खोने का खौफ़ है ज़िन्दगी, कुछ तो नाराज़ है ज़िन्दगी, अज़ीब क़शमक़श है ज़िन्दगी।-
विसाल-ए-रात
कुछ लफ़्ज़ आज भी दिल में ख़न्ज़र की तरह चुभते ही जा रहे है
तेरा अचानक से यूँ चले जाना जुदाई के क़िस्से बुनते ही जा रहे है
वो आख़िरी रात इन्तिज़ार की और सिर्फ तेरे इन्तिज़ार में थी
मगर आज भी तेरे इन्तिज़ार की उस रात में तुझको ढूँढते ही जा रहे है
तेरी आख़िरी विसाल-ए-रात में सड़क पर मैं नाशाद-ओ-आवारा था
क़ुमक़ुम सी झिलमिलाती रात में दर्द-ए-जुदाई के ग़म को कैसे भूलते ही जा रहे है
कैसी ख़लिश, दूरियाँ पैदा हो गई थी हम दोनों के दरमियां
इस दूरी में इशक़ के पैमाने में हर लम्हा तेरी यादों से गुजरते ही जा रहे है
तेरे दिल में अपनी जगह भी न बना सका, यही ग़म रहेगा ज़िन्दगी भर
इशक़ के पैमाने में कभी उसके दिल में तो कभी तेरे दिल से उतरते ही जा रहे है
लुत्फ़-ए-क़लाम था तुझसे, पिछ्ली ज़िन्दगी का पस-ए-मन्ज़र है तू मेरा
ज़ज़्बा-ए-मासूम सा शहनाज़-ए-लाला रूख़, तेरे चेहरे के समंदर में डूबते ही जा रहे है-
नशेड़ी बालक
आज मेरी मनाज़िर-ए-ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं
मेरे दिल-ए-बेताब में मेरा ही तख़्त-ए-जमाना नहीं
होश में बहुत कुछ कह गया मैं अपने ग़म-गुसार को
तिरी-मिरी दोस्ती का ज़िन्दगी में कोई अफ़साना नहीं
तुझसे रूठकर तुझसे ही मुश्तइ'ल था मेरा दिल
अब दिल में नदामत, ख़ज़ालत का ख़ज़ाना नहीं
तेरा बालकपन मुझे अक़्सर तेरे इतना क़रीं कर देता है
के दूर होकर भी तिरी-मिरी क़िस्मत में खो जाना नहीं
तुझसे बात किए बग़ैर मेरा दिल इंतिशार सा हो जाता है
क़ाश तिरा रब्त न होता और तिरा बालक सा मुस्कुराना नहीं
तिरा नाम-ओ-निशान ही मेरी पिछली ज़िन्दगी थी
शायद ज़िन्दगी की इक याद है तू, कोई फ़साना नहीं
आज दिल ख़ुशनुमा है, छोटी - छोटी ख़ुशी का ज़हान, दुनिया है तू
तुझसे मुलाक़ात में दिल में दफ़्न ग़मों का आज कोई बहाना नहीं-
मैं तुझसे बात करते वक़्त बालक सा बन जाता हूँ
तेरे जमाल पर नहीं, तेरे बालकपन पर फ़िदा हूँ
तुझसे मौहब्बत नहीं, तेरी दोस्ती में मर मिटा हूँ
मैं असीर हूँ तेरा, अब रिहा होना नामुमकिन सा है
मैं रिंद, नशेड़ी सा लेकिन तेरा ही तो इक क़सीदा हूँ
अज़ीब सा रब्त है, लगाव है तिरी-मिरी दोस्ती में
तू बाद-ए-सबा है और मैं रात का अलविदा हूँ
गुल-ए-गुलिस्तां की तरह मेरी ज़िन्दगी में दोस्ती की सी ज़ौ है
इस बाब-ए-दोस्ती में तू किनारा और मैं सैर-ए-सफ़ीना हूँ
मेहताब की चाँदनी के मानिंद तू मेरा ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब है
शम्स-ओ-क़मर के हर्फ़ में निस्बत-ए-दोस्ती में फ़िज़ा हूँ
तू ही तो हम-नफ़स, अहबाब, यार, दोस्त है इक मेरा
हज़ार दफ़ा की लड़ाई, रन्ज के बावज़ूद भी इक हिबा हूँ
ज़िन्दगी भर की बातें पता है तुझको, मेरी हक़ीक़त से रूबरू है तू
अपने राज़ को छुपाना सीखा है मैंने, सिर्फ मैं तेरे लिए ही काशिफ़ा हूँ
मेरे लफ़्ज़ों, शब्दों की वज़ह से ख़लिश है हमारी दोस्ती में
मेरा दिल-ओ-दिमाग़ ही तो उन्स-ए-दोस्ती के लफ़्ज़ों में पाक़ीज़ा हूँ
तेरे साथ बिताया हुआ एक-एक लम्हा, नफ़स ज़न्नत की तरह है
सड़क पर पैदल चलते वक़्त हमारी गुफ़्तगूँ की निशान-ए-निशा हूँ
तेरी बातों में बालकपन सा झलकता है, तेरी तासीर का असर है मुझमें
मैं तुझसे बात करते वक़्त बालक सा बन जाता हूँ, तेरा ही शाहिदा हूँ
(काजल)-
ए'तिबार
ए'तिबार भी बड़ी अज़ीब चीज़ है,
जिस पर करो, वो दग़ा देता है
और
जिस पर न करो, वो ए'तिबार करता है-