झांकता
निवड़ों से
अपने
प्रेम की
आशा में
कोई
दे सकोगे
स्नेह
केवल
पूछता है
मन बटोही-
Gurgaon Haryana
वेदना के तिमर छटते
शुन्य के उजास से
ओ रे बालम जब जगेंगे
दीप मन विश्वास के
शांति की लय से पूरित
सूर्य का होगा उदय
एकता के रंग सजता
त्याग जीवन का अजय
जब अहिंसा का प्रणय
होगा विजय के साथ में
तब महा मानव रचेगा
स्वर्ण युग नव रास में
वर्ष नव की भोर में
आनंद के विभोर मे
बांध देगा लक्ष्य उज्वल
वो गरज घनघोर में
वो ही छलिया मौन मन का
स्वप्न का चितचोर है।
जीत लेता है वो जग को
बांध मन की डोर मे।
# मुक्ता मिश्रा #
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मेरे महबूब मुझे अपना हुनर दे दे ना
ज़िंदगी हूं तो ज़िंदगी का असर दे दे ना।
तेरे सजदे में गुज़र जाएं मेरी सब सांसे
तू समंदर है समंदर का सबर दे दे ना।-
सदियों से
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सदियों से छीना गया
क्रूर अंधेरो से छलकर
निर्वाह
एक अछूत का
प्रतिकार की बेड़ियो में
जकड़ कर
सिसकता रहा ,तड़पता रहा
मेरा स्वर !!
र्धर्म,अर्थ काम,और मोक्ष
किसी भी मापदण्ड से मुझे
बोलने का अधिकार था ही नहीं
क्यूँ की मैं दलित हूँ घृणित हूँ
प्रबुद्ध समाज में आज भी
तिरस्कार से हारकर
क्या मेरा प्रस्फुटन
छू सकेगा आसमान ?!!
सदियों से घुटता रहा
जातिवाद की बेड़ियों में
मेरा बचपन,जवानी और
मेरी स्मिता में
कहाँ हैं ?
सही पोषण,शिक्षा और सुरक्षा
का कोई ठोस कदम!!
एक निष्ठुर,कर्म की तरह
आज भी पूजित है
भ्रमित मन बौने ज्ञान की
दूषित अवधारणा क्या लौटा देगी
मेरा श्रापित सम्मान ?
जो अभी भी ढो रहा है
अदृश्य मैला और
शोषण इसी समाज का
आज भी-आज भी-आज भी !!
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द्वार अब तो, खोल दो
प्राण रज, खोने लगा ।
तुम अपरचित, यूं हुए
मौन मन, रोने लगा ।
द्वार अब तो, खोल दो
हूं सजल सी, प्रेरणा मैं
अपरा सी, निरझरा ।
सह न पाऊंगी, विरह की
वेदना तुम, जान लो।
शुन्य मन, मेरा सम्पर्ण
छल नहीं है, मान लो ।
मुक्त कर दो, स्पंदनो से
अब तो प्रियतम, प्राण लौ ।
तुम अकल्पित, यूं हुए
गुण ये गुण, खोने लगा ।
अर्ध्दसत्यो के, भरम मे
राग रंग होने लगा ।
द्वारअब तो, खोल दो
प्राण रज, खोने लगा ।
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प्रस्फुटित हैं !
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प्रस्फुटित है स्वपन सारे
ढूंढते है वो सहारे
कौन जाने किस डगर पर
मौन मन उनको पुकारे
है अपरिचित ज्ञान सारे
अज्ञान गर्भित रंग सारे
कौन जाने किस डगर पर
शुन्य मन उन को पुकारे
चल बटोहि रूक न जाना
तू अहमता के सहारे
कौन जाने किस डगर पर
गुरू मन उनको पुकारे
ये नयन तो जग नयन है
हो हमारे या तुम्हारे
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मन की पीर अधीर को, पिया मिलन की आस । उड़ जाते बिन पंख के, जैसे प्राण उजास ।
लौटा दो इस देह को, प्राण प्रिय का संग।
उन बिन नयना हैं विकल ,जैसे कटी पतंग।
जिसका मन है प्रणव की ,अथक प्रीत मे लीन ।
उसका कण कण , सांवरे है आसक्तिहीन ।-
आ तो गई है ख्वाहिश !
बारिश की बूंद बन के
बस हबीब की पनाह मे
दुआ को सिला नहीं है !-
चरागो को संभाल लो !
ठहर जाऊगी !
मैं रौशनी हूं ! फकत !
ये मेरी हकीकत होगी !
की मैं जलती रहूं !
ये तेरी मोहब्बत होगी !
की तू मुझे बुझने न दे !
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बचके चलते हैं सभी
मनहूस सायो से यूही हमने भी
आईना देखना छोड़ दिया
रब की महफिल मे
उसके चर्चे है वो ही जाने !
दुआ क्या है दवा क्या है !-