आज मेरे अश्क का हर दरिया उसे सदाक़त लगता है,
तो क्या हुआ मेरी मौजूदगी कभी उसे आफ़त लगता है,
मेरा कमज़ोर ईश्क़ तुझे पाने को अब काबिल नही रहा,
अब मुक़म्मले मोहब्बत के जुम्बिश को बहुत ताकत लगता है,
मेरा नि-जोर नब्ज़ अमूमन ठहर जाने को ज़िद करता है,
बीमार हक़ीम मेरे बस्ती के मुझसे ज्यादा नाताकत लगता है,
मुमकिन है मेरे ग़ुनाह का पैरवी उसे फिर जीत दिला दे,
मगर इन्साफ को मेरे इस जहान में अब अदालत लगता है,
जो कैद हो तुम तो अहले वतन पे ज़ां क़ुर्बान तुम्हारी,
रंभेड़ियोँ के सिरकलम से पहले कहाँ जमानत लगता है,
बड़ी मुश्किल से समझ में आते है ये लखनऊ वाले,
दिलों के फासलों में लबों पे आदाब का आदत लगता है,
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