कोई नहीं है तेरा इस जग में,
तू किसकी बाट निहारे।
अपने में सब मस्त मगन है,
दुनियां को भूले - बिसारे।।
धर्मराज कहते थे जिसको,
उसने कैसा ये धर्म दिखाया था ?
अपनी ही प्रिय पंचाली को
युधिष्ठिर ने दांव लगाया था।
कुरूवंश की कुलबधु द्रौपदी ने
कुरुवंशियों से थे ये प्रश्न किए,
क्या द्रोण, भीष्म की मौन कह रही
कुरूवंश क्षत्रिय विहीन हुए ?
आज भी कई दुर्योधन है ऐसे
जो जंघा ठोक बुलाते हैं।
पर द्रौपदी की रक्षा के बदले
हम धृतराष्ट्र बने क्यों रह जाते हैं?
हे आज कि द्रौपदी सुन मेरी,
तुझे खुद की लाज बचानी है।
जो हाथ बढ़े दु:शासन की तुझ पर,
तो हर वो हाथ काट गिरानी है।।
*MUKESH KUMAR JHA*
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वो शायर नहीं हूं मैं जो शायरी लिखता है
बस इक उसकी याद आ... read more
तुम नींद से तो जागो
तो एक ख़्वाब दिखाता हूं,
भूल बैठी हो खुद को तुम
तो तुम्हें तुझसे मिलाता हूं।
याद कर वो अतीत अपना
तुम बैठी हो जिसे बिसारकर,
रणचण्डी का तुम रूप मनाली
रण में तुम तीव्र प्रहार कर।
किस सोच में पड़ी हो तुम
क्या मन में तुमने ठानी है?
सबकी नजरें तुझ पर टिकी हैं
तुझे जीत कर दिखानी है।
ख़्वाब है वो तालियां
जो तेरे नाम पर गुंजेंगी,
तेरे क़दमों को सफलता
फिर सर झुका कर चूमेंगी।
Dedicated to 'Manali'
by
- Mukesh Kumar Jha-
हे केशव! अब अवतार लो,
इस श्रृष्टि को संवारने को, दुष्ट को संहारने को,
जनमानस की करुण पुकार सुनो,
हे केशव! अब अवतार लो ।
दुष्ट ने तबाही के बिगुल है बजा दिये,
हम सब को तुम बिसारकर, किस निंद्रा में समा गए,
हे करुणानिधि! जनमानस की, तुम चीख और पुकार सुनो,
हे केशव! अब अवतार लो ।
चारों तरफ भूख से, किलकारियां हैं गूंजती,
बेआसरों की निगाहें , घर है अपना ढूंढ़ती ,
है मुरलीधर! अपने बांसुरी की, अमृत हवा में घोल दो,
हे केशव! अब अवतार लो ।
सतयुग, त्रेता और द्वापर में, तुमने थे अवतार लिए,
देवी अहिल्या, माता शबरी की, तुम राम बनकर उद्धार किए,
आज धरती है पुकार रही, तुम कलियुग में भी अवतार लो,
हे केशव! अब अवतार लो ।
- MUKESH KUMAR JHA
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सड़क किनारे सूखी पड़ी वो पेड़ के नीचे खुद को खड़ा किये हो कभी ?
किसी अजनबी का मन में एक तस्वीर बना कर इंतजार किये हो कभी?
किसी की आने कि खबर हो तो इंतज़ार लाज़मी है मगर,
बिना किसी मतलब के रास्ता निहारते सुबह से शाम किये हो कभी?-
ये जो तेरे पैरों की पायल है उससे सिर्फ़ खनकने की सदा आती तो कोई और बात होती,
मगर ये तो हमें बहकाने लगी है
तुम सामने बैठी रहती , मैं तेरा दीदार करता तो कोई बात होती,
मगर तेरी हरकतें मुझे तेरे क़रीब बुलाने लगी है..!!!
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एक बंदिश थी, कुछ बेड़ियां थी,
जो शायद उसे कहीं ना कहीं जकड़ी हुई थी।
हां! शायद जाना था उसे दूर कहीं हमसे,
फिर भी ना जाने क्या सोचकर अब तक ठहरी हुई थी।।
ना जानें कितनी बेड़ियां वो तोड़ चुकी थी,
मेरे यादों के झोंकों की रुख तक वो मोड़ चुकी थी।
हां शायद उसे भी दर्द होता होगा ऐसी हालातों के बीच,
फिर भी उसे अच्छा लग रहा था पुरानी जज्बातों के बीच।।
ख़्याल तो कई बार आया होगा उसे,
बस बहुत हुआ अब भाग चल इधर से।
फिर भी ना जाने क्यों वो बेड़ियां अच्छी लग रही थी,
हां शायद यही हमारे रिश्ते को जोड़ने वाली आख़िरी कड़ी थी।।
आज हिम्मत मिला है उसे शायद कहीं से,
तभी तो वो कर दिखाई जो उससे नहीं हुआ था महीनों से।
उन सारी बंदिशें और बेरियों को वो आज तोड़ चली है,
हमारी ज़िन्दगी से आज वो मुंह मोड़ चली है..!!
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उस गली ने ये सुनकर सब्र कर लिया
की जाने वाले यहां के थे ही नहीं....!!!!-
अन्दर की खामोशी का शोर
बाहर वाले शोर से कहीं ज्यादा होता है...!!-
क्यूं वक़्त के साथ चेहरे की रंगत चली जाती है
एक सवेरा हुआ करता था जब हंस कर उठा करते थे हम
और आज बिना मुस्कुराए ही शाम हो जाती है
ना जाने क्यूं हंसती खेलती ज़िन्दगी आम हो जाती है...!!-