सखी! क्यों तुम उदास हो रही? क्यों खुद को कोस रही? तुम भी इंसान हो कमियाँ- खामियाँ तुममें होना जायज़ है, ख़्वाहिशों के पूरे न होने पर रोना हमेशा नहीं, पर कभी-कभी चलता है, हाँ! कभी-कभी सबका दिल खलता है ...
मैं मौन; आँखें आँसू के ज़रिये बोल रही "क्या दुःख रहा है इतना? सब तो ठीक है अपनी जगह, फिर क्यूँ तू रो रही बेवज़ह? किसे फ़र्क पड़ता है एक तू ही अपने दर्द में तड़पता है"
रात की चादर ओढ़कर सारे काम वहीं छोड़कर मैंने आँखें बंद कर ली सुबह तो सब ठीक हो जायेगा न...
कितनी सारी बातें करनी है मुझे गर तुम सुनना चाहो इत्मीनान से, हो सकता है मैं अचानक चुप पड़ जाऊँ; तब मेरी ख़ामोशियाँ पढ़; सुन लेना वो बातें जो मैं कह न पाई अपने ज़बान से...