मस्त मग्नमौजी   (अंश_)
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ये अस्तित्व का 'अंश' अपने अस्तित्व में है...
Joined 17 May 2019


ये अस्तित्व का 'अंश' अपने अस्तित्व में है...
Joined 17 May 2019

बाहर बारिश हो रही थी
एकाएक दिल ने तुम्हें याद किया।

एक पन्ना खोल पढ़ने लगी
जिसमें दीदार तुम्हारा था,
अचानक ठंड बढ़ने लगी
मैंने फिर आग बारा था;
उसी पन्ने के ज़रिये।

किसने कहा कि
हर कहानी पूरी होनी ही होती है,
कभी-कभी यादें भी ज़रूरी होती हैं...

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सखी! क्यों तुम उदास हो रही?
क्यों खुद को कोस रही?
तुम भी इंसान हो
कमियाँ- खामियाँ तुममें होना जायज़ है,
ख़्वाहिशों के पूरे न होने पर रोना
हमेशा नहीं, पर कभी-कभी चलता है,
हाँ! कभी-कभी सबका दिल खलता है ...

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मैंने कहा करो अपने मन की
तुम मुझसे आज़ाद हो,
पर इस जुड़ाव का क्या करूँ?
वहाँ तुम याद करके रोये
इधर आँसू मेरी आँखों से बह रहे...

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बेशक़ बेबात बेचैन हो,
हाथ पकड़कर देखो ज़रा
'जीने' की चाह हुई तो
दो नैनों के पार सब दिख जायेगा...

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मैं मौन;
आँखें आँसू के ज़रिये बोल रही
"क्या दुःख रहा है इतना?
सब तो ठीक है अपनी जगह,
फिर क्यूँ तू रो रही बेवज़ह?
किसे फ़र्क पड़ता है
एक तू ही अपने दर्द में तड़पता है"

रात की चादर ओढ़कर
सारे काम वहीं छोड़कर
मैंने आँखें बंद कर ली
सुबह तो सब ठीक हो जायेगा न...

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क्यूँ छुप-छुपकर देखा करूँ तुझे?
ये निरर्थक-सा लगने लगा है,
नज़रें मिलाकर देखना
ज्यादा मुनासिब है,

चलो अब मुलाकात करते हैं
कहीं साथ बैठकर बात करते हैं
कुछ गहरी, कुछ निज़ी, कुछ काम के...

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तुम मेरे नहीं हो
तुम मैं ही हो,
'मुझसे अलग होना'
ये एक हास्यास्पद वाक्य है...

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तुमसे मिलने की तलब जारी है,
हालाँकि तुम मुझमें ही बसते हो...

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वरदान ही श्राप है,
श्राप भी वरदान है...

जीने का तरीका अर्थ बदल देता है...

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कितनी सारी बातें करनी है मुझे
गर तुम सुनना चाहो इत्मीनान से,
हो सकता है मैं अचानक
चुप पड़ जाऊँ;
तब मेरी ख़ामोशियाँ पढ़;
सुन लेना वो बातें
जो मैं कह न पाई अपने ज़बान से...

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