माॅंग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है।
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है।।
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के चेहरे चहरे भटका मुसाफ़िर
खुद को मानो भूल गया
मिला न खुद को अरसों से
दिल के साथ सफर भी गया।-
मेरा तुम्हारा रिश्ता ये किस दौर - ए - इश्क़ में है..
क्यों ये मुहब्बत से ज्यादा और पूरा अकीदत से कम है?-
खुद से और खुदा से दूर जा रहा हूं
हां! सच को अब मैं झुठला रहा हूं
कि लगता सब दिल को है दिल में नहीं कुछ
समझ सब रहा हूं फिर भी आज़मा रहा हूं।-
आलू उबालना भी एक कला है इसके लिए आपको MA,B.Ed,CTET उत्तीर्ण होना जरूरी नहीं।
इस पर नरेंद्र जैन जी की निम्न पंक्तियां याद आती हैं...
जब कुछ भी नहीं हुआ करता
आलू ज़रूर होते हैं
जब कुछ भी नहीं होगा
आलू होंगे ज़रूर
स्वाद से ज़्यादा
भूख से ताल्लुक़ रखते हैं
आलू-
अब जो रातों को कभी सोता नहीं मैं
मुझे रातों-रात जगाया हैं किसी ने
सहारा दे के छोड़ा है किसी ने
दिल- ए- उम्मीद तोड़ा है किसी ने
मैं सबकुछ भूल जाऊं कभी कहता है दिल
उसका नाम फिर जुबां पे लाया है किसी ने
सहारा दे के छोड़ा है किसी ने
दिल- ए- उम्मीद तोड़ा है किसी ने
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हंसता रहता हूं क्यों मैं आज कल
बरस नहीं रहे हैं बादल आज कल
मैं खुश हूं ये लगे है जमाने को...
सिर्फ़ बारिशों में रोता हूं मैं आज कल-
अपने दिल को खुद ही यूँ छलनी किए जा रहा हूं मैं
के काश! खुशियों को यूँ ही कुछ तो शर्म आ जाए।-
सारे तजुर्बे इसी ज़िंदगी में आजमाना हैं,
जाकर इस आलम नहीं फिर वापिस आना है।-
मुझको दिल का बड़ा या अच्छा न कहो- दोस्तों
मैंने मैं को पाने की क़ीमत दिल से चुकाई है।
दर्द - ए - हयात की हसरत है ये दोस्तों
देखो तो मुझे ये कहां तक ले आई है।
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